प्रगतिशील ब्लॉग लेखक संघ. Blogger द्वारा संचालित.
प्रगतिशील ब्लॉग लेखक संघ एक अंतर्राष्ट्रीय मंच है जहां आपके प्रगतिशील विचारों को सामूहिक जनचेतना से सीधे जोड़ने हेतु हम पूरी तरह प्रतिबद्ध हैं !



सांसद कोष : मांगने वाले भी खुद ही, देने वाले भी खुद ही, भई वाह !

गुरुवार, 24 मार्च 2011

केन्द्र सरकार ने अंतत: निर्णय कर ही लिया कि सांसद कोष को दो करोड़ से बढ़ा कर पांच करोड़ कर दिया जाए। सरकार ने क्या, सांसदों ने ही निर्णय किया है। मांग करने वाले भी सांसद और मांग पूरी करने वाले भी सांसद। खुद ने खुद को ही सरकारी खजाने से तीन करोड़ रुपए ज्यादा देने का निर्णय कर लिया। सांसद निधि बढ़ाने के निर्णय का कोई और विकल्प है भी नहीं। और दिलचस्प बात ये है कि राजनीतिक विचारधाराओं में लाख भिन्नता के बावजूद इस मसले पर सभी सांसद एकमत हो गए। भला अपने हित के कौन एक नहीं होता। मगर आमजन को यह सवाल करने का अधिकार तो है ही कि जिस मकसद से यह निर्णय किया गया है, वह पूरा होगा भी या नहीं? क्या वास्तव में इसका सदुपयोग होगा?
हालांकि कोष बढ़ाने के निर्णय के साथ यह तर्क दिया गया है कि इससे दूरदराज गांव-ढ़ाणी में रह रहे गरीब का उत्थान होगा, मगर इस तर्क से उस पूरे प्रशासनिक तंत्र पर सवालिया निशान लग जाता है, जो कि वास्तव में सरकार की रीढ़ की हड्डी है। एक सांसद तो फिर भी अपने कार्यकाल में संसदीय क्षेत्र के गांव-गांव ढ़ाणी-ढ़ाणी तक नहीं पहुंच पाता, जबकि प्रशासनिक तंत्र छोटे-छोटे मगरे-ढ़ाणी तक फैला हुआ है। 
सवाल ये उठता है सांसद निधि बढ़ाए जाने के निर्णय से पहले धरातल पर जांच की गई कि क्या वास्तव में सांसद अपने विवेकाधीन कोष का लाभ जरूरतमंद को ही दे रहे हैं? क्या किसी सरकारी एजेंसी से जांच करवाई गई है कि सांसद निधि की बहुत सारी राशि ऐसी संस्थाओं को रेवड़ी की तरह बांट दी जाती है, जिससे व्यक्तिगत का व्यक्तिगत हित सधता है? चाहे वह वोटों के रूप में हो अथवा कमीशनबाजी के रूप में। कमीशनबाजी का खेल काल्पनिक नहीं है, कई बार ऐसे मामले सामने आ चुके हैं। सवाल ये भी है कि सांसद निधि बढ़ाए जाने से पहले क्या इसकी भी जांच कराई गई कि पहले जो दो करोड़ की राशि थी, वह भी ठीक से काम में ली गई है या नहीं?
हालांकि इस सभी सवालों के मायने यह नहीं है कि सांसद निधि का दुरुपयोग ही होता है, लेकिन यह तो सच है ही कि अनेक सांसद ऐसे हैं जो सांसद निधि का उपयोग करने में रुचि लेते ही नहीं। और जो लेते हैं वे किस तरह से अपने निकटस्थों और उनकी संस्थाओं को ऑब्लाइज करते हैं, यह किसी से छिपा हुआ नहीं है। इस सिलसिले में अंधा बांटे रेवड़ी, फिर-फिर अपनों को दे वाली कहावत अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं कही जाएगी। इसके अतिरिक्त जिन संस्थाओं को सांसद कोष से राशि दी जाती है, वे संस्थाएं अमूमन प्रभावशाली लोगों की होती हैं। इनमें पत्रकारों के संगठन व पत्रकार क्लबों को शामिल किया जा सकता है। जयपुर के पिंक सिटी क्लब में भी अनेक सांसदों व विधायकों के कोष की राशि खर्च की गई है। यानि जिन संस्थाओं को राशि दी जाती है, वे उतनी जरूरतमंद नहीं, जितने कि गरीब तबके के लोग। एक उदाहरण और देखिए। अजमेर के दो सांसदों औंकारसिंह लखावत व डॉ. प्रभा ठाकुर ने देशनोक स्थित करणी माता मंदिर के लिए इसलिए अपने कोष से राशि इसीलिए दे दी क्योंकि उन पर अपनी चारण जाति के प्रभावशाली लोगों का दबाव था। या फिर इसे उनकी श्रद्धा की उपमा दी जा सकती है। हालांकि यह सही है कि दोनों सांसदों ने नियमों के मुताबिक ही यह राशि दी होगी, इस कारण इसे चुनौती देना बेमानी होगा, मगर सवाल ये है कि देशभर में इस प्रकार खर्च की गई राशि से ठेठ गरीब आदमी को कितना लाभ मिलता है?
वस्तुस्थिति तो ये है कि इस राशि का उपयोग अपनी राजनीतिक विचारधारा का पोषित के लिए किया जाता है। अनेक सांसदों ने अपनी पार्टी की विचारधारा से संबद्ध दिवंगत अथवा जीवित नेताओं के नाम पर स्मारक, उद्यान आदि बनाने के लिए राशि दी है।
ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे, जिनमें आपको सांसद कोष से बने निर्माणों की दुर्दशा होती हुई मिल जाएगी। अजमेर का ही एक छोटा सा उदाहरण ले लीजिए। तत्कालीन भाजपा सांसद प्रो. रासासिंह रावत ने पत्रकारों को ऑब्लाइज करने के लिए सूचना केन्द्र में छोटा सा पत्रकार भवन बनाया, मगर उसका आज तक उपयोग नहीं हो पाया है। उस पर ताले ही लगे हुए हैं। रखरखाव के अभाव में वह जर्जर होने लगा है।
ऐसे में सांसद निधि को दो करोड़ से बढ़ा कर यकायक पांच करोड़ रुपए कर दिया जाना नि:संदेह नाजायज ही लगता है। सांसदों को अपनी निधि बढ़ाने से पहले ये तो सोचना चाहिए था कि यह पैसा आमजन की मेहनत की कमाई से बने कोष में से निकलेगा। एक ओर गरीबी हमारे देश की लाइलाज बीमारी बन गई है। सरकार के लाख प्रयासों और अनेकानेक योजनाओं के बाद भी बढ़ती जनसंख्या और महंगाई के कारण गरीबी नहीं मिटाई जा सकी है, दूसरी ओर सांसद निधि के नाम पर सरकारी कोष से करीब आठ सौ सांसदों को मिलने वाले अतिरिक्त चौबीस सौ करोड़ रुपए  क्या जायज हैं? खैर, आमजन केवल सवाल ही उठा सकते हैं, उस पर निर्णय करना तो जनप्रतिनिधियों के ही हाथ में है। जब तक ये सवाल उनके दिल को नहीं छू लेते, तब तक कोई भी उम्मीद करना बेमानी है।
-गिरधर तेजवानी

1 comments:

आपका अख्तर खान अकेला 24 मार्च 2011 को 9:55 pm बजे  

bhaai tejvaani ji shi khaa yeh fizuzl khrchi he yojnaa aayog vidrn adhiniym ke khilaaf bhi he . akhtar khan akela kota rajsthan

एक टिप्पणी भेजें

www.hamarivani.com

About This Blog

भारतीय ब्लॉग्स का संपूर्ण मंच

join india

Blog Mandli
चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी
apna blog

  © Blogger template The Professional Template II by Ourblogtemplates.com 2009

Back to TOP