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चार दिन बनाम चालीस साल

शनिवार, 9 अप्रैल 2011


अन्ना हजारे का चार दिन का आमरण अनशन नक्सलियों के चालीस साल के हिंसक संघर्ष पर भारी पड़ा. इन चार दिनों के अंदर देस के हर हिस्से में समाज के हर तबके से समर्थन की जो सुनामी उठी उसकी मिसाल महात्मा गांधी या लोकनायक जयप्रकाश नारायण के आंदोलनों के दौरान उठे जन सैलाब से ही दी जा सकती है. नक्सलियों   की हिंसक कार्रवाइयों से प्रभावित क्षेत्र की जनता में दहशत ज़रूर छाई है लेकिन कभी ऐसा उत्साह उत्पन्न नहीं हुआ है. भारत में कोई भी बदलाव गांधीवाद के रास्ते से ही आएगा और यहां के लोग बंदूक की नली से सत्ता की उत्पत्ति की अवधारणा को किसी कीमत पर स्वीकार नहीं करेंगे अन्ना के आंदोलन और उसकी उपलब्धि से यह बात साफ़ हो चुकी है.

            निश्चित रूप से इस आंदोलन के प्रति लचीला और सकारात्मक रुख अख्तियार कर मनमोहन सिंह सरकार ने यह संदेश दिया है के वह गांधीवाद की भाषा समझती है.कुछ पूर्ववर्ती सरकारों ने शांतिपूर्ण अहिंसक आंदोलनों पर दमनचक्र चलाकर और हिंसक संगठनों के साथ समझौता वार्ता कर यह जाहिर किया था कि गांधी की नहीं गोली और बारूद की भाषा ही समझती है. इसके बाद ही देस में उग्रवाद और आतंकवाद ने जोर पकड़ा था. 1974 के जेपी आंदोलन के दौरान श्रीमती इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाकर और अर्द्धसैनिक बलों तथा ख़ुफ़िया एजेंसियों का राजनैतिक इस्तेमाल कर आंदोलन को कुचल डालने का भरसक प्रयास किया था. हालांकि उस आंदोलन को इतना ज़बरदस्त जन समर्थन प्राप्त था कि उस आंधी में खुद उन्हीं का आशियाना उखड गया था. उनके हाथ से सत्ता की बागडोर निकल गयी थी. इस आंदोलन का प्रभाव यह पड़ा कि कई नक्सली गुटों ने हिंसा का रास्ता त्यागकर मुख्य धारा की राजनीति  शुरू कर दी. 1977 में जब मोरारजी देसाई के नेतृत्त्व में आन्दोलनकारियों की सरकार बनी. उस सरकार ने भी आन्दोलन के गांधीवादी तौर-तरीकों को तरजीह नहीं दी. जेपी समर्थक नवयुवकों ने उस ज़माने में छात्र युवा संघर्ष वाहिनी का गठन  कर सम्पूर्ण क्रांति की शुरूआत की. उनका सबसे बड़ा आंदोलन बोध गया महंथ की करीब 15 हज़ार एकड़ सीलिंग से अधिक और बेनामी ज़मीन की ज़ब्ती और भूमिहीनों के बीच वितरण का था. यह विश्व में अहिंसक वर्ग संघर्ष का पहला प्रयोग था. इसपर पूरी दुनिया की नज़र थी. खुद नक्सली संगठनों ने भी अपने संघर्ष को रोक दिया था और इसके परिणामों  का इंतज़ार कर रहे थे. लेकिन सरकार और स्थानीय पुलिस-प्रशासन ने महंथ के लठैतों की भूमिका अपना ली.शांतिपूर्ण प्रदर्शनों और धरने के कार्यक्रमों को लाठी  और अश्रुगैस से रोकने की कोशिश की जाने लगी. 8  अगस्त 1979 को तो हद ही हो गयी. बोध गया के मस्तीपुर गांव में आन्दोलनकारियों की सभा में पुलिस और महंथ के पहलवानों ने लाठी और गोली से हमला कर दिया. कई प्रदर्शनकारी घायल हुए. तीन-चार लोग मरे गए.


नक्सलियों ने इस कार्रवाई के विरोध में उसी रात महंथ के एक पहलवान की हत्या कर दी. उनका अहिंसक वर्ग संघर्ष के इस प्रयोग से मोहभंग हो गया. उन्हें लगा कि उनका बन्दूक का रास्ता ही सही है. इसके बाद उनकी लड़ाई तेज़ हो गयी. इधर सरकारी तंत्र ने उलटे महंथ के पहलवान कि हत्या के आरोप में वाहिनी के कार्यकर्ताओं  के विरुद्ध मुकदमा ठोक दिया. प्रदर्शन के दौरान घायल हुए या मरे गए आन्दोलनकारियों का मामला ठप्प हो गया. अहिंसक आन्दोलन को कुचलने का नतीजा आज भी यह देस भुगत रहा है. 1980 में श्रीमती गांधी दुबारा सत्ता में आयीं तो उन्होंने भी भिंडरवाले जैसे आतंक को अपने विरोधियों को दबाने के लिए परोक्ष रूप से प्रश्रय दिया.सुभाष घिसिंग, लाल्देंगा जैसे लोगों की ताक़त उनके ज़माने में ही बढ़ी. जिस हिंसा उनहोंने बढ़ावा दिया वही अंततः  उनके लिए भष्मासुर साबित हुआ. राजीव गांधी प्रधान मंत्री बने तो उन्होंने भी लालदेंगा से समझौता कर हिंसा की भाषा को सरकारी तौर पर जल्दी सुनी जाने वाली भाषा के रूप में स्थापित किया. इन कार्रवाइयों से हिंसक संघर्षों को बल मिला. गांधीवादी आन्दोलन के तौर तरीके अप्रासंगिक नज़र आने लगे. मनमोहन सरकार ने अन्ना हजारे के आन्दोलन पर लचीला रुख अपना कर अहिंसा की भाषा के प्रति अपनी स्वीकृति दी है. इसका दूरगामी प्रभाव पड़ेगा.

           अन्ना हजारे भारत के राजनैतिक संतों की परंपरा की कड़ी हैं. सबसे बड़ी बात है कि उन्होंने पूर्ववर्ती राजनैतिक संतों की गलतियों को दुहराया नहीं है. महात्मा गांधी और लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने आन्दोलन की सफलता के बाद उसकी उपलब्धियों से स्वयं  को अलग कर लिया था. सत्ता  की बागडोर दूसरों के हाथ में थमा दी थी. उसपर अपना कोई नियंत्रण नहीं रखा था. नतीजतन उनकी परिकल्पना आकर नहीं ले सकी थी. सिर्फ स्वार्थपूर्ति के लिए उनका नाम भुनाया जाता रहा था. सत्ता के प्रति अपनी अनाशक्ति का प्रदर्शन करने के लिए उन्होंने ऐसे लोगों को नेतृत्व थमा दिया जो उनके सिद्धांतों को न समझते थे न समझना चाहते थे. अन्ना हजारे ने एक सदस्य के रूप में सही संयुक्त समिति में रहना स्वीकार कर यह बता दिया कि वे पूर्वजों की  गलती दुहराने नहीं जा रहे. अन्ना हजारे और उनके समर्थकों ने एक और सतर्कता बरती. उन्होंने किसी भी राजनैतिक दल के नेता को अनशन स्थल पर फटकने नहीं दिया. आन्दोलन में ऐसे गैर राजनैतिक सामाजिक कार्यकर्त्ता और विभिन्न क्षेत्रों के अगुआ लोग इकट्ठे हुए जिनकी जनता के बीच साफ़ सुथरी छवि है. युवा वर्ग का उत्साह एक नए बदलाव की यात्रा प्रारंभ होने का विश्वास दिला रहा था. देशभर में लोग टीवी पर आंख गडाए पल-पल की खबर उसी तन्मयता से ले रहे थे जिस तन्मयता से कुछ ही दिन पहले क्रिकेट मैच के स्कोर  की जानकारी ले रहे थे. अब इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि जंतर मंतर की  इस हलचल को वामपंथी या भाजपाई किस रूप में विश्लेषित कर रहे हैं. लेकिन इस घटना ने जनतंत्र में तंत्र पर जन की पकड़ को मज़बूत किया है.यह भ्रष्टतंत्र के खिलाफ जनतंत्र की जंग के शुरूआत है. अभी कई मरहले पार करने हैं. कई अवरोध हटाने हैं. जनमानस में नै आशाओं का संचार हुआ है. अन्ना हजारे के नेतृत्व में  एक सकारात्मक बदलाव की ओर कारवां निकल पड़ा है. अहिंसक लड़ाई की इस जीत से बन्दूक की नली से सत्ता की उत्पत्ति का इंतजार करने वाले लोगों को भी कुछ सबक लेनी चाहिए.  


-----देवेंद्र गौतम 

2 comments:

रवीन्द्र प्रभात 9 अप्रैल 2011 को 6:05 pm बजे  

चार दिन बनाम चालीस साल, बहुत सुन्दर और सारगर्भित टिपण्णी है आपकी और विचार प्रासंगिक, बधाईयाँ !

वन्दना अवस्थी दुबे 9 अप्रैल 2011 को 11:05 pm बजे  

सटीक, सामयिक आलेख. एक्जुटता के सुफल का नया संदेश दिया है इस आन्दोलन ने, जिसे देश की जनता भूल रही थी.

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