मेरी त्रिवेनियाँ...
शुक्रवार, 19 अगस्त 2011
1 . एक को समझाऊँ तो दूसरी रोने लगती है ,
थक -सा गया हूँ सबको मनाते मनाते ,
ये तमन्नाओं का कटोरा कभी भरता ही नहीं |
2 . मैंने छिपा लिया उन्हें मुट्ठियों में मोती समझकर ,
तुमने पोंछ दिया हथेली से पानी कहकर ,
या खुदा ! आंसूओं का मुकद्दर भी जुदा-जुदा होता है ?
3 . ना जाने क्या चुभता रहा रात भर आँखों में ,
मसलते मसलते लाल हो गईं आँखें मेरी ,
सुबह धोईं जो शबनम से बूंदों के साथ चाँद निकला |
4 . तेरे लिए अग़र बाँध भी दूं सागर को ,
क्या मिलेगा इन बेकाबू जज़्बातों को कैद कर ,
दरवाज़े से टकराकर लहरें शोर मचाती रहेंगी |
5 . जाऊं कितना भी दूर तुमसे किसी भी दिशा में ,
टकरा ही जाता हूँ किसी ना किसी मोड़ पर ,
सच ही कहा है, किसी ने कि दुनिया गोल है |
6 . कुछ अरसे पहले तेरे हाथों कि खुशबु रह गई थी हर जगह ,
वही महक , महकती रहती है आज भी , लफ़्ज़ों में ,
डायरी के पन्नों में बसी यादें अब भी गीली हैं |
1 comments:
त्रिवेनियाँ , तो अक्सर कम ही मिलती हैं पढने को
लेकिन आपकी लेखनी ने आपके मन का कहा क्या मान लिया ,
मानो ग़ज़ब हो गया ....
हर ख़याल शानदार
सभी जज़्बात का उम्दा इज़हार
वाह - वा !!
एक टिप्पणी भेजें