ग़ज़लगंगा.dg: रिश्तों की पहचान अधूरी होती है
मंगलवार, 19 जून 2012
रिश्तों की पहचान अधूरी होती है.
जितनी कुर्बत उतनी दूरी होती है.
पहले खुली हवा में पौधे उगते थे
अब बरगद की छांव जरूरी होती है.
लाख यहां मन्नत मांगो, मत्था टेको
आस यहां पर किसकी पूरी होती है.
खाली हाथ कहीं कुछ काम नहीं बनता
हर दफ्तर की कुछ दस्तूरी होती है.
किसको नटवरलाल कहें इस दुनिया में
जाने किसकी क्या मजबूरी होती है.
उनका एक लम्हा कटता है जितने में
अपनी दिनभर की मजदूरी होती है.
-----देवेंद्र गौतम
'via Blog this'
1 comments:
उनका एक लम्हा कटता है जितने में
अपनी दिनभर की मजदूरी होती है.
वाह ,,,, बहुत बेहतरीन सुंदर रचना,,,,,
RECENT POST ,,,,,पर याद छोड़ जायेगें,,,,,
RECENT POST ,,,,फुहार....: न जाने क्यों,
एक टिप्पणी भेजें