ग़ज़लगंगा.dg: कोयले की खान में दबकर रहा हीरा बहुत.
शुक्रवार, 31 अगस्त 2012
हर किसी की आंख में फिर क्यों नहीं चुभता बहुत.
कोयले की खान में दबकर रहा हीरा बहुत.
इसलिए मैं धीरे-धीरे सीढियां चढ़ता रहा
पंख कट जाते यहां पर मैं अगर उड़ता बहुत.
यानी प्रब्लेस, जहां न क्षेत्र की बंदिशें, न जाति और धर्म की....केवल एक बिरादरी प्रगतिशील ब्लॉग लेखक संघ की, आईए खुलकर कीजिए बात जैसे अपने घर में करते हैं !
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हर किसी की आंख में फिर क्यों नहीं चुभता बहुत.
कोयले की खान में दबकर रहा हीरा बहुत.
इसलिए मैं धीरे-धीरे सीढियां चढ़ता रहा
पंख कट जाते यहां पर मैं अगर उड़ता बहुत.
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