समर्पण
शनिवार, 19 फ़रवरी 2011
चाँद तारों की बात करते हो
हवा का रुख बदलने की
बात करते हो
रोते बच्चों को जो हंसा दो
तो मैं जानूँ |
मरने - मारने की बात करते हो
अपनी ताकत पे यूँ इठलाते हो
गिरतों को तुम थाम लो
तो मैं मानूँ |
जिंदगी यूँ तो हर पल बदलती है
अच्छे - बुरे एहसासों से गुजरती है
किसी को अपना बना लो
तो में मानूँ |
राह से रोज़ तुम गुजरते हो
बड़ी - बड़ी बातों से दिल को हरते हो
प्यार के दो बोल बोलके तुम
उसके चेहरे में रोनक ला दो
तो मैं जानूँ |
अपनों के लिए तो हर कोई जीता है
हर वक़्त दूसरा - दूसरा कहता है |
दुसरे को भी गले से जो तुम लगा लो
तो मैं मानूँ |
तू - तू , मैं - मैं तो हर कोई करता है
खुद को साबित करने के लिए ही लड़ता है
नफ़रत की इस दीवार को जो तुम ढहा दो
तो मैं मानूँ |
6 comments:
तू - तू , मैं - मैं तो हर कोई करता है
खुद को साबित करने के लिए ही लड़ता है
नफ़रत की इस दीवार को जो तुम ढहा दो
तो मैं मानूँ |
bahut sahi baat
.बहुत अच्छी और प्रेरणा प्रद कविता के साथ प्रगतिशील ब्लॉग लेखक संघ में आपकी उपस्थिति अच्छी लगी , आपका स्वागत है इस सामूहिक ब्लॉग पर !
bahut achhi prastuti
अच्छी और प्रेरणा प्रद कविता !
बहुत सुन्दर.
अच्छी अभिव्यक्ति ...कहने और करने में अन्तर को कहती हुई
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