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ग़ज़लगंगा.dg: फिर उमीदों का नया दीप....

रविवार, 26 जून 2011

फिर उमीदों का नया दीप जला रक्खा है.
हमने मिटटी के घरौंदे को सजा रक्खा है.

खुश्क आंखों पे न जाओ कि तुम्हें क्या मालूम
हमने दरियाओं को सहरा में छुपा रक्खा है.

एक ही छत तले रहते हैं मगर जाने क्यों
हमने घरबार पे घरबार उठा रक्खा है.

वक़्त की आंच में इक रोज झुलस जायेगा
जिसने सूरज को हथेली पे उठा रक्खा है.

कितने पर्दों में छुपा रक्खा है चेहरा उसने
जिसने हर शख्स को उंगली पे नचा रक्खा है.

ग़ज़लगंगा.dg: फिर उमीदों का नया दीप....

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