गीत
बुधवार, 1 फ़रवरी 2012
पूस की ठिठुरन
भाष्कर की बाट तके दिन
भोर अलसायी सी
उनीदीं अखिंया लिये
धुन्ध का दुशाला ओढे
कँपकँपाती सी चले
सकुंचायी जैसे नवेली दुलहिन
अनमने से वृ्क्षों ने
किये ओस स्नान
वन के वाशिन्दे भी
कापंते अधरों से
कर रहे प्रात गान
गरीबी का ओढना बन
दिवाकर दरस दो बदली बिन
मनेगी कैसे सक्रान्ती
फैलाओगे गर न कान्ती
अवनि पर आ विराजो
रश्मी रथ पर हो सवार
अपने तेज पुन्ज से
करो पशु प्राणियों का उपकार
सांझ को निगलता कोहरे का जिन्न्।
3 comments:
बेहतरीन गीत ,लाजबाब रचना .
NEW POST...40,वीं वैवाहिक वर्षगाँठ-पर...
बेहतरीन गीत
एक अच्छी रचना |
आशा
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