ग़ज़लगंगा.dg: सिलसिले इस पार से उस पार थे
शुक्रवार, 9 मार्च 2012
सिलसिले इस पार से उस पार थे.
हम नदी थे या नदी की धार थे?
क्या हवेली की बुलंदी ढूंढ़ते
हम सभी ढहती हुई दीवार थे.
उसके चेहरे पर मुखौटे थे बहुत
मेरे अंदर भी कई किरदार थे.
मैं अकेला तो नहीं था शह्र में
मेरे जैसे और भी दो-चार थे.
खौफ दरिया का न तूफानों का था
नाव के अंदर कई पतवार थे.
तुम इबारत थे पुराने दौर के
हम बदलते वक़्त के अखबार थे.
ग़ज़लगंगा.dg: सिलसिले इस पार से उस पार थे
2 comments:
sarthak prastuti .aabhar
KAR DE GOAL
उसके चेहरे पर मुखौटे थे बहुत
मेरे अंदर भी कई किरदार थे.
बहुत सुंदर रचना
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