ग़ज़लगंगा.dg: बंद दरवाज़े को दस्तक दे रहा था
शनिवार, 14 अप्रैल 2012
जाने किस उम्मीद के दर पे खड़ा था.
बंद दरवाज़े को दस्तक दे रहा था.
कोई मंजिल थी, न कोई रास्ता था
उम्र भर यूं ही भटकता फिर रहा था.
वो सितारों का चलन बतला रहे थे
मैं हथेली की लकीरों से खफा था.
मेरे अंदर एक सुनामी उठ रही थी
फिर ज़मीं की तह में कोई ज़लज़ला था.
इसलिए मैं लौटकर वापस न आया
अब न आना इस तरफ, उसने कहा था.
और किसकी ओर मैं उंगली उठाता
मेरा साया ही मेरे पीछे पड़ा था.
हमने देखा था उसे सूली पे चढ़ते
झूठ की नगरी में जो सच बोलता था.
उम्रभर जिसके लिए तड़पा हूं गौतम
दो घडी पहलू में आ जाता तो क्या था.
ग़ज़लगंगा.dg: बंद दरवाज़े को दस्तक दे रहा था:
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4 comments:
उम्रभर जिसके लिए तड़पा हूं गौतम
दो घडी पहलू में आ जाता तो क्या था.
बहुत सुंदर रचना...बेहतरीन पोस्ट
.
MY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: आँसुओं की कीमत,....
हमने देखा था उसे सूली पे चढ़ते
झूठ की नगरी में जो सच बोलता था.
उम्रभर जिसके लिए तड़पा हूं गौतम
दो घडी पहलू में आ जाता तो क्या था.
यही होता है हम जिसकी चाह में दौडते हैं वह हमें छकाता ही रहता है।
दो घडी पहलू में आ जाता तो क्या था ?
बहुत ही सुन्दर पंक्तियां ...लाजवाब प्रस्तुति
अच्छी रचना...
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