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न्याय व्यवस्था को मुंह चिढाती हिंसा का ज़लवा

बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

देखा ....सबने देखा इस ज़लवे को  ....पूरे देश ने और दुनिया ने भी देखा. बापू ! आप भी ......जहाँ कहीं हों इसके साक्षी ज़रूर रहना. साक्षी रहना कि राम और कृष्ण के देश में ....महावीर और बुद्ध के देश में हिंसा की ताकत ने गणतांत्रिक न्यायपालिका को धता बताते हुए सरकार को अदालत में देश के दुश्मनों की ज़मानत के समर्थन में अपने मुंह पर ताला लगा लेने के लिय विवश कर दिया है. अर्थात प्रकारांतर से लोकतांत्रिक सरकार ने नक्सलियों को अभय दे दिया है. यह एक रणनीति भी हो सकती है ...किन्तु रणनीति होने पर भी इतनी विवशता ? इतनी विवशता कि न्यायपालिका तक को induced  पक्षाघात कर दिया ? ...हमारा सवाल है कि एक संप्रभु राष्ट्र भी यदि विवश होकर हिंसा के आगे लाचार होता रहेगा तो न्यायव्यवस्था का अस्तित्व एक परिहास से अधिक और कुछ नहीं रह जाएगा. ओडीशा के मलकानगिरी जिले के कलेक्टर को बंधक बनाकर उनकी सलामती की कीमत पर एक-दो नहीं बल्कि बारह हार्ड-कोर नक्सलियों को जेल से छुडा लेने का क्या सन्देश गया है देश में .......क्या यह एक गंभीर खतरे की पूर्व सूचना नहीं है ? यह पहली बार नहीं हुआ है .....मुफ्ती मोहम्मद की बेटी महबूबा के प्रकरण में भी वर्षों पहले ऐसा हो चुका है. क्या हम मान लें कि पाकिस्तान और अफगानिस्तान की तरह हमारे देश में भी छोटी-छोटी समानांतर कबीलाई सरकारों की शुरुआत हो चुकी है. ये सरकारें केवल नक्सली कबीलों की ही नहीं हैं ......मोहल्ले के एक दादा से लेकर बेलगाम अफसरों, राष्ट्र के घोटालेबाज़ कर्णधारों और बाज़ार में छाते जा रहे माफिया गिरोहों......से लेकर शीर्ष वैज्ञानिक संस्थानों की जड़ों में मट्ठा डालने वाले वैज्ञानिक कबीलों की भी हैं. देश के बुद्धिजीवियों ! इस निर्लज्ज तमाशे में आपकी भूमिका क्या है ?       

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