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ज़मीं की खाक में.....

मंगलवार, 8 मार्च 2011


ज़मीं की खाक में देखा गया है.
परिंदा जो बहुत ऊँचा उड़ा है.

हवा का काफिला ठहरा हुआ है.
फ़ज़ा के सर पे सन्नाटा जड़ा है.

मरासिम टूटने के बाद अक्सर
तआल्लुक और भी गहरा हुआ है.

ज़बां पर आएगा इक दिन यकीनन
मेरे सीने में कुछ ठहरा हुआ है.

नदी की बांध अब टूटी ही समझो
कि पानी सर के ऊपर जा रहा है.

कभी अहसास की कीमत लगी है
कभी जज़्बात का सौदा हुआ है.

तुम्हारे नाम सबकुछ कर चुके हैं
हमारे पास अब रखा ही क्या है.

कोई हलचल नहीं है ज़हनो-दिल में
तमन्नाओं का सूरज ढल चुका है.

संभलने के लिए बदलीं थीं राहें
वही आवारगी का सिलसिला है.

जिए या मर चुके अपनी बला से
मेरा गौतम से कोई वास्ता है?

----देवेन्द्र गौतम

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