वो जानती है
मंगलवार, 8 मार्च 2011
वो चली आई
अपने काम पर
रोज की तरह
वही कूड़ा बीनना
वही कूड़ा बीनना
कहीं ईटों को
सर पर ढोना
कहीं कपड़ों को धोना
कहीं खाना बनाना
और बदले में
पिटना,गालियाँ खाना
हर शाम
सहना वार
अपने तन पर
वो डरी हुई है
आज भी
सहमी हुई है
घूरती आँखों में तैरते
अनजान
लाल डोरों को देख कर
वो कांपती है
सर्द रातों में
जलते अलावों को
देख कर
वो ठिठुरती है
भरी गर्मी में
ठन्डे पानी की
धार को देख कर
वो
बेखबर है
अखबारों में छपती
अनोखी रंगीन दुनिया से
उस दुनिया से
जो दिखाती है
एक नयी तस्वीर
खूबसूरती के बदलते
मायनों की
एक नयी तहजीब की
सभ्यता की
विकास की
मन में
मन में
सुलगती हुई
बदले की आग की
उसकी नज़रों में
ये सब
निरर्थक है
क्योंकि
वो जानती है
ये रस्मी दिन
अगले साल
फिर लौटकर
आना है!
4 comments:
एक दिन का शोर ....अच्छी भावाभिव्यक्ति
अच्छी रचना।
औपचारिकता ही होती है यह दर्शाती रचना।
इसे भी पढें ओर अपने विचारों से अवगत कराएं।
http://atulshrivastavaa.blogspot.com/2011/03/blog-post.html
bahut sukshm marmik chitran
सुन्दर प्रस्तुति,आभार!
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