कुदरत के सामने बौना हुआ इंसान
शनिवार, 12 मार्च 2011
संदर्भ- जलजला जापान का
मेरी ग़ज़ल का एक शेर था-
"हुआ यही कि खुद अपना वजूद खो बैठा
वो जिसने दबदबा कायम किया था कुदरत पर".
जापान में सचमुच कुदरत के सामने इंसान फिर बौना साबित हुआ. सारा ज्ञान, सारा विज्ञान, सारे वैज्ञानिक उपकरण धरे के धरे रह गए और प्रकृति के तांडव से अपना बचाव नहीं किया जा सका. जापान में पहले 8 से ज्यादा तीव्रता वाले भूकंप के झटकों ने कहर बरपाया फिर सुनामी लहरों ने तबाही मचाई. पूरा विश्व सकते में आ गया. जान-माल के नुकसान का अभी आकलन किया जाना है. फ़िलहाल बचाव और राहत कार्य चल रहे हैं. मौसम वैज्ञानिकों को धरती के अंदर चल रही हलचल की कोई पूर्व जानकारी नहीं मिल पायी. मिलती तो इस नुकसान को कुछ कम किया जा सकता था.
यह सच है कि प्राकृतिक आपदाओं के साथ जापान का चोली-दामन का साथ रहा है. भूकंप के हलके झटकों कि तो कोई गिनती ही नहीं 1891 से अबतक जापान में 8 से अधिक तीव्रता के सात भूकंप आ चुके हैं. विशेषज्ञों का कहना है कि जापान के भूगर्भ से रिंग ऑफ़ फायर नमक एक पट्टी गुज़रती है जो धरती पर भीषण भूकंपों का वाहक बनती है. जापान के लोगों ने प्राकृतिक आपदाओं से अपने बचाव का इंतजाम भी काफी किया है. सुनामी से बचने के लिए योशिनामा शहर के समुद्री तटों पर 200 मीटर चौड़ी बाड़ और 800 मीटर ऊंची दीवार बनायीं है. सुनामी वार्निंग प्रणाली विकसित की है.यह प्रशांत सुनामी वार्निंग ह्रानाली से जुदा है. जिससे विश्व के सौ से अधिक देश जुड़े हुए हैं. इससे समुद्र का अंदर होनेवाली उथल-पुथल की जानकारी मिलती रहती है. लेकिन 11 मार्च को 8.9 तीव्रता के भीषण भूकंप और इसके बाद आई सुनामी का अनुमान तक नहीं लगाया जा सका. पूरी प्रणाली विफल हो गयी. कुछ उपकरणों के जरिये जापान को समुद्री तूफानों के बारे में कुछ हद तक जानकारी पाने में सफलता मिली है लेकिन ज्वालामुखी विस्फोट, उसके कारण होने वाले भूकंप और उठने वाली सुनामी लहरों के समय का पूर्वानुमान नहीं हो पाता.
भू-वैज्ञानिकों का कहना है कि दक्षिण-पूर्व एशिया के भूगर्भ में के बीच गुरुत्वाकर्षण और चुम्बकीय कारणों से घर्षण होता रहता है. इसके कारण पृथ्वी कि संरचना और गति पर प्रभाव पड़ रहा है. पृथ्वी का ऊपरी हिस्सा लिथोस्फरिक नामक जिन शैल-खण्डों से बना है उनकी सतह 50 से 650 किलोमीटर तक मोटी है. ये शैल-खंड एक दूसे से टकराते हैं तो भूकंप आता है. शाल खण्डों के टकराने की घटना समुद्र के आसपास होने पर सुनामी लहरों का उठाना लाजिमी होता है. वैज्ञानिकों का कहना है कि ज्वालामुखी विस्फोट भी शैल-खण्डों के घर्षण के कारण ही होता है.
बहरहाल सच्चाई यही है कि प्राकृतिक संपदाओं के अंधाधुन्द दोहन के कारण वायुमंडल, भूतल और भूगर्भ का संतुलन पूरी तरह बिगड़ चुका है. इसी कारण प्राकृतिक आपदाओं में बढ़ोत्तरी हो रही है. धरती पर जीवन के बरक़रार रहने की उम्मीदों पर ही सवाल उठने लगे हैं. विज्ञान ने काफी तरक्की की है लेकिन प्रकृति के कोप से अपनी रक्षा ही नहीं कर पाए तो इस तरक्की का क्या मतलब....? जापान की घटना पूरे विश्व के वैज्ञानिकों के लिए एक चुनौती है कि भविष्य में ऐसी आपदाओं से मानव जीवन की रक्षा वे कर पते हैं या नहीं. क्या प्रकृति के साथ मनुष्य जाति का कोई सामंजस्य बन पायेगा..? यदि हाँ...तो कैसे..?
-----देवेन्द्र गौतम
2 comments:
सही है. अंधाधुंध प्राकृतिक सम्पदाओं का दोहन मानव-जीवन के लिये कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में घातक सिद्ध होगा ही. प्रकृति से अधिक शक्तिशाली कोई नहीं है, उसकी सत्ता पर काबिज होने की कोशिश, ईश्वरीय सत्ता को अपदस्थ करने की कोशिश जैसा है. खामियाज़ा तो भुगतना ही होगा. बहुत अच्छी, सार्थक पोस्ट.
कुदरत के सामने मनुष्य बौना साबित हुआ !
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