एक कत्ता
रविवार, 10 अप्रैल 2011
(जंतर-मंतर के नाम)
दो कदम पीछे हटे हैं वो अभी
एक कदम आगे निकलने के लिए.
ये सियासत का ही एक अंदाज़ है
झुक गए हैं और तनने के लिए.
-----देवेंद्र गौतम
यानी प्रब्लेस, जहां न क्षेत्र की बंदिशें, न जाति और धर्म की....केवल एक बिरादरी प्रगतिशील ब्लॉग लेखक संघ की, आईए खुलकर कीजिए बात जैसे अपने घर में करते हैं !
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6 comments:
सटीक लिखा है ..
बढ़िया कता।
बहुत सुन्दर कता है. सियासत में झुकना भी कूटनीति का ही एक हिस्सा है.
बहुत सटीक..
वे तनने के लिए झुके हों तो भी क्या? अगर जन एक बार जाग्रत हुआ तो फिर अंजाम कुछ न कुछ निकलेगा ही और वो वक्त के अँधेरे में है. बहुत सटीक लिखा है. इन्तजार है कल का ......
वाह बहुत बढ़िया लिखा है आपने. सही बात है कि लड़ाईयां न तो यूं ही जीती जाती हैं न ही यूं हारी जाती हैं...लंबा बहुत लंबा रास्ता बाक़ी है अभी
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