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कागा और कोयल

रविवार, 22 मई 2011

कागा है उन्मुक्त वो उड़ता
कर्कश बोली रोज़ सुनाता है
कोयल बोले मीठी बोली
उसको ही पूजा जाता है


पर अपने लालों का पोषण 
कोयल क्यों नहीं कर पाता है
बोझ समझकर अपने बच्चों को
वो निर्दयता से ठुकराता है


कागा है कर्कश तो भी
उसके लालो को अपनाता है
सड़ी- गली भोजन को भी
बड़े चाव से खा जाता है


आलस नहीं करता कागा
बस वो शोर मचाता है
कोयल के मीठी बोलों से
क्यों मानव ठगा सा जाता है


बोली से न पहचानो तुम
गुण से ही परखा जाता है
कुदरत कई तरह से हरदम
ए मानव ! तुझे सिखाता है

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