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राहुल की ताजपोशी पर विवाद : कितना सही, कितना गलत?

रविवार, 3 जुलाई 2011

नेहरू-गांधी खानदान के युवराज राहुल गांधी की प्रधानमंत्री पद पर ताजपोशी की मांग करके कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने एक बार फिर राजनीतिकों को विवाद और चर्चा करने का मौका दे दिया है। एक ओर जहां कांग्रेस के अंदरखाने में इस पर गंभीर चिंतन हो रहा है, वहीं विपक्षी दलों ने इसे परिवारवाद की संज्ञा देने साथ-साथ मजाक उड़ाना शुरू कर दिया है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर तो बाकायदा सुनियोजित तरीके से एक तबका इस विषय पर हंसी-ठिठोली कर रहा है।
आइये, जरा गौर करें दिग्विजय सिंह के बयान पर। उनका कहना है कि राहुल अब 40 वर्ष के हो गये हैं और उनमें प्रधानमंत्री बनने के सारे गुण और अनुभव आ गये हैं। सवाल ये उठता है कि क्या 40 साल का हो जाना कोई पैमाना है? क्या इतनी उम्र हो जाने मात्र से कोई प्रधानमंत्री पद के योग्य हो जाता है? जाहिर सी बात है उम्र कोई पैमाना नहीं है और सीधे-सीधे बहुमत में आई पार्टी अथवा गठबंधन को यह तय करना होता है कि वह किसे प्रधानमंत्री बनाए। तो फिर दिग्विजय सिंह ने ऐसा बयान क्यों दिया? ऐसा प्रतीत होता है कि ऐसा उन्होंने इस कारण कहा है कि पूर्व में जब उनका नाम उछाला गया था तो विपक्ष ने उन्हें बच्चा कह कर खिल्ली उड़ाई थी। तब अनुभव की कमी भी एक ठोस तर्क था। लेकिन अब जब कि वे संगठन में कुछ अरसे से काम कर रहे हैं, विपक्ष को यह कहने का मौका नहीं मिलेगा कि उन्हें अनुभव नहीं है। उम्र के लिहाज से अब वे उन्हें बच्चा भी नहीं कर पाएंगे। और सबसे बड़ा ये कि जिस प्रकार विपक्ष ने सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा उठा कर उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी पर पहुंचने के बाद भी पीछे खींच लिया था, वैसा राहुल के साथ नहीं कर पाएंगे। ऐसे में हाल ही पूर्व उपप्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी ने एक नया पैंतरा खेला है। उन्होंने अपने ब्लॉग पर लिखा है कि कांग्रेस एक परिवार की जागीर हो गई है। ऐसा करके वे कांग्रेस में विरोध की सुगबुगाहट शुरू करना चाहते हैं। ऐसे प्रयास पूर्व में भी हो चुके हैं।
तार्किक रूप से आडवाणी की बात सौ फीसदी सही है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में इस प्रकार परिवारवाद कायम रहना निस्संदेह शर्मनाक है। अकेले प्रधानमंत्री पर ही क्यों, यह बात केन्द्रीय मंत्रियों व  मुख्यमंत्रियों पर भी लागू होती है। राजनीति में परिवारवाद पर पूर्व में भी खूब बहस होती रही है। मगर सच्चाई ये है कि कोई भी दल इससे अछूता नहीं है। खुद भारतीय जनता पार्टी भी नहीं। कांग्रेस तो खड़ी ही परिवारवाद पर है। यदि बीच में किसी और को भी मौका दिया गया तो उस पर नियंत्रण इसी परिवार का ही रहा है। जब पी. वी. नरसिंहराव प्रधानमंत्री बने और सोनिया गांधी राजनीति में न आने की जिद करके बैठी थीं, तब भी बड़े फैसले वहीं से होते थे। मनमोहन सिंह को तो खुले आम कठपुतली ही करार दे दिया गया है। एक ओर यह कहा जाता है कि वे सर्वाधिक ईमानदार हैं तो दूसरी ओर सोनिया के इशारे पर काम करने के कारण सबसे कमजोर भी कहा जाता है। मगर तस्वीर का दूसरा रुख ये है कि उन्हें कमजोर और आडवाणी को लोह पुरुष बता कर भी भाजपा मनमोहन सिंह के नेतृत्व में लड़े गए चुनाव में उन्हें खारिज नहीं करवा पाई थी। तब भाजपा की  बोलती बंद हो गई थी। अब जब कि मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल में भ्रष्टाचार व महंगाई के मामले उफान पर हैं, उन्हें नकारा माना जा रहा है। इसी मौके का फायदा उठा कर दिग्विजय सिंह ने राहुल को प्रधानमंत्री के योग्य बताने का राग अलाप दिया है। समझा जाता है कि कांग्रेस हाईकमान भी यह समझता है कि दूसरी बार उनके नेतृत्व में चुनावी वैतरणी पार करना नितांत असंभव है, इस कारण पार्टी में गंभीर चिंतन चल रहा है कि आगामी चुनाव से पहले पाल कैसे बांधी जाए। यूं तो मनमोहन सिंह के अतिरिक्त कुछ और भी योग्य नेता हैं, जो प्रधानमंत्री पद के लायक हैं, मगर चूंकि डोर सोनिया गांधी के हाथ ही रहनी है तो उसकी भी हालत वही हो जाने वाली है, जो मनमोहन सिंह की हुई है। ऐसे में पार्टी के सामने आखिरी विकल्प यही बचता है कि राहुल को कमान सौंपी जाए। इसमें कोई दोराय नहीं कि परिवारवाद पर टिकी कांगे्रेस में अंतत: राहुल की ही ताजपोशी तय है, मगर पार्टी यह आकलन कर रही है कि इसका उचित अवसर अभी आया है या नहीं। इतना भी तय है कि आगामी चुनाव से पहले ही राहुल को कमान सौंप देना चाहती है, ताकि उनके नेतृत्व में ही चुनाव लड़ा जाए। मगर अहम सवाल ये भी है कि क्या स्वयं राहुल अपने आपको इसके तैयार मानते हैं। देश में प्रधानमंत्री पद के अन्य उम्मीदवारों से राहुल की तुलना करें तो राहुल भले ही कांग्रेस जैसी सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी का नेता होने और गांधी परिवार से ताल्लुक रखने के कारण सब पर भारी पड़ते हैं, लेकिन यदि अनुभव और वरिष्ठता की बात की जाए तो वह पिछड़ जाते हैं। यदि उन्हें अपनी समझ-बूझ जाहिर करनी है तो खुल कर सामने आना होगा। ताजा स्थिति तो ये है कि देश के ज्वलंत मुद्दों पर तो उन्होंने चुप्पी ही साध रखी है। अन्ना हजारे का लोकपाल विधेयक के लिए आंदोलन हो या फिर बाबा रामदेव का कालेधन के खिलाफ आंदोलन, इन दोनों पर राहुल खामोश रहे। इसके बावजूद यह पक्का है कि यदि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने चमत्कारिक परिणाम दिखाये तो फिर प्रधानमंत्री पद राहुल के लिए ज्यादा दूर नहीं रहेगा। रहा मौलिक सवाल परिवारवाद का तो यह आम मतदाता पर छोड़ देना चाहिए। अगर राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस चुनाव लड़ती है तो जाहिर है कि विपक्ष परिवारवाद के मुद्दे को दमदार ढंग से उठाएगा। तब ही तय होगा कि लोकतंत्र में सैद्धांतिक रूप से गतल माने जाने वाले परिवारवाद की धरातल पर क्या स्थिति है।
-तेजवानी गिरधर, अजमेर

1 comments:

virendra sharma 4 जुलाई 2011 को 7:34 pm बजे  

हो जाने दो भाई दूध का दूध और पानी का पानी .राहुल आखिरी विरासत साबित हो सकतें हैं .लगता नहीं शादी

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