खबरगंगा: रंगकर्म : मेरा प्रथम प्रेम
शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2012
वो दिन भी खूब थे...तब जम कर नाटक किया करते थे ...कई सपने देखा करते..नाटको से ये कर देंगे..वो कर देंगे...क्रांति ला देंगे ...आन्दोलन खड़ा कर देंगे ....जब जीवन का संघर्ष सामने आया..तो सारे जोश की हवा निकल गयी...सच तो यही है कि 'नाटक' कभी हमें दाल-रोटी नहीं दे सकता था....समाज इन्हें बहुत गंभीरता से भी तो नहीं लेता, खासतौर पर हमारे छोटे से शहर में ...फिर सब छूटता गया .... छूटता गया.....हालाँकि आज भी परोक्षतः रंगमंच से जुडी रहती हूँ पर 'अभिनय' किये कई साल हो गए..मेरे जीवन का प्रथम प्रेम जाने कहा विलुप्त हो गया.
'थियेटर' से मेरा लगाव बचपन से रहा है...यह वाकई मेरा पहला-पहला प्यार था और इतनी शिद्दत से मैंने चाहा कि सारी कायनात इसे मुझसे मिलाने में लग गयी (हा हा हा )..असल में रंगमंच का आकर्षण मेरी जीन में ही था...पापा कालेज में और मम्मी स्कूल में नाटक किया करती थी...यानि कि जब मेरा जन्म हुआ तो 'अभिनय' का 'डबल डोज़' नसों में दौड़ रहा था ...मैंने लगभग चार साल की उम्र में 'मंच' पर कदम रख दिया था ...पर 'रंगमंच' अब भी बहुत दूर था...अपने मोहल्ले में एक जगह 'पूर्वाभ्यास' हुआ करता था...मै अक्सर वहां चली जाती और अभिनय करते लोगो को मंत्र मुग्ध होकर देखती ...स्थानीय नागरी प्रचारिणी सभागार में 'आला अफसर' नाटक हो रहा था..हमारे पास भी आमंत्रण आया ...पापा हम सभी को दिखाने ले गए ..वो पहला नाटक था जिसे मंचित होते देखा था ...ये एक सपना के सच हो जाने जैसा एहसास था...सच मानिये आज भी उसके कई दृश्य याद है..
रंगमंच मेरे लिए बहुत बड़ा आकर्षण था, पर 'अभिनय' का मौका मिलना आसान कहाँ था.. सपने देखती और खुश हो लेती ..उच्च विद्यालय में नामांकन हुआ..एक दिन प्रिंसिपल कार्यालय से बुलावा आया...जाने पर पता चला कि अंतर स्कूल प्रतियोगिता में नाटकों की भी जोर - आजमाइश है...हमारे स्कूल को भाग लेना है...'खोज एक नारी पात्र की' एकांकी था, जिसमे मुझे रानी लक्ष्मी बाई के लिए चुना गया...मुझे लगा जैसे हवा में उड़ने लगी हूँ...अब रंगमंच बिलकुल मेरे पास था..मै उसे छू सकती था...गले लगा सकती थी...मुझसे संवाद बुलवाए और लिखवाए गए...घर आई ..होमवर्क के बजाये 'संवाद' याद किया ....झाँसी की रानी की तस्वीरे देखी...तलवार की मूठ पर हाथ रखने की अदाए सीखी ...बहुत-बहुत खुश थी ...दूसरे दिन स्कूल गयी..लंच के बाद रिहर्सल होना था....देखा कि मेरी सीनियर वही संवाद बोल रही थी जो मुझे लिखवाए गए थे..रिहर्सल में उन्होंने ही लक्ष्मी बाई का रोल किया ...मै चुपचाप देखती रही (अंतर्मुखी हूँ न इसलिए )...मेरा दिल टूट गया था...सपने बिखर गए थे...जिन्दगी नीरस हो गयी थी (हा हा हा...अब उस समय कुछ ऐसा ही एहसास हो रहा था )...घर आकर खूब रोई ..गुस्से में दूसरे दिन स्कूल भी नहीं गयी ..दोपहर में नीचे से आवाज़ सुनाई दी...सोम्बरा...ए सोम्बरा ...आवाज़ स्कूल के चपरासी कि थी जो मेरे नाम का उच्चारण 'स्वयम्बरा' के बजाये 'सोम्बरा' करता था . उसने सर की एक चिठ्ठी दी ..उसमे स्कूल आने का आदेश था...डरते -सहमते वहाँ गयी..मुझे उस एकांकी में 'उद्घोषक' का रोल करने को कहा गया.. छोटा सा रोल था पर मै खुश थी...आखिर थियेटर ने मुझे अपना ही लिया ....हमारा नाटक हुआ...प्रथम पुरस्कार मिला...इसके बाद मैंने पीछे नहीं देखा...
खूब नाटक किया...बार-बार का रिहर्सल..स्क्रिप्ट पर लम्बी बहस...एक एक दृश्य पर मंथन...प्रकाश और वस्त्र परिकल्पना पर घंटो माथापच्ची भी थका नहीं पाता. घर-घर घूमकर चंदा मांगते ...टिकट काटते ...कड़ी धूप...कडकडाती ठण्ड..बारिश भी रोक नहीं पाती. किसी भी तरह का अवरोध हमारी प्रतिबद्धता को कम नहीं कर पाता . नाटक करना एक जूनून था..इबादत था...छटपटाहट की अभिव्यक्ति का माध्यम था ..हम गर्व करते कि रंगकर्मी है.. अपने शहर का एकमात्र हाल 'नागरी प्रचारिणी सभागार' मंचन के लिए किसी भी तरह से उपर्युक्त नहीं, पर हमारे लिए वह ऐसा मंदिर था, जहा सपने साकार होते...
नाटक एक प्रयोगधर्मी कला है..नाट्य रचना और प्रस्तुति दोनों में प्रयोग होते रहते हैं ...इसीलिए यहाँ संख्या महत्वपूर्ण नहीं, नाटकों को 'करते रहने' की महत्ता है....जरुरी नहीं की पचास-सौ नाटक करे ...एक नाटक ही हर मंचन में पूर्व से भिन्न हो जाता है ...हर बार एक नए अर्थ की सृष्टि होती है, जो नए प्रयोग के लिए बाध्य करता है...स्व. भिखारी ठाकुर रचित 'बिदेसिया' और स्व. सफ़दर हाश्मी लिखित 'औरत' का मंचन हमने कई बार किया...हर बार नए अर्थ उद्घाटित हुए...नयी चीजों का समावेश हुआ
थियेटर करने के दौरान कई समस्यायों से दो चार होना पड़ा, बहुत सारी नयी बाते सीखने-समझने को मिली...असल में नाटक कलाओं का मेल है...यह संगीत, मूर्तिकला, चित्रकला, साहित्य और वास्तु का मिश्रण होता है....रंगकर्म का मतलब ही है सभी कलाओं में निपुणता....हम रंगकर्मी लगभग सभी कार्य को करना सीख ही जाते है .साहित्य का चस्का मुझे नाटको से लगा . इसने हमें नए जीवन मूल्य भी दिए....अबतक की जिन्दगी 'मैं' पर केन्द्रित थी अब समूह का सुख-दुःख अपना लगने लगा ...नाटक एक सामूहिक कला है ..यहाँ परस्पर सहयोग की भावना अपने-आप विकसित हो जाती है...अनुशासन आदत बन जाता है...संवेदना पहचान बन जाती है
ग्रैज़ुएशन तक ऐसे ही चला फिर अचानक सब बंद हो गया.. अब 'जीवन' के गंभीरतम सवालों से जूझना था..हम नाटको से दो वक़्त की रोटी का जुगाड़ नहीं कर सकते थे ..पलायन मज़बूरी थी...क्यूंकि या तो इसे अपनाकर भटकते रहते या सिनेमा और टी. वी. की ओर रुख कर लेते (जो अन्दर के रंगकर्मी को गवारा नहीं था)...दूसरी बात, हमारे शहर में नाटको को इतनी गंभीरता से लिया ही नहीं जाता कि इसे कैरियर के रूप में अपनाने कि सोच भी सके...लोगो की नज़र में ये 'बिना काम के काम' है ...जो बिलकुल गैर जरुरी है..इसका महत्व मनोरंजन तक ही सीमित है ...कुल मिलाकर समस्या 'व्यावसायिक रंगकर्म' के नहीं होने से थी..
(हिंदी रंगकर्म न तो पूरी तरह जीवन यापन का साधन बन पाया और न ही वह हमारे जीवन का जरुरी हिस्सा बन पाया ....देवेन्द्र राज अंकुर )
...कहानी का अंत ये हुआ कि नाटकों की जगह 'सिविल सर्विसेस' की तैयारी शुरू हो गयी . अभिनय की जगह 'आई. ए. एस.' बनने का सपना पलने लगा...हालाँकि दो बार मेंस निकलने के बावजूद साक्षात्कार में असफल रही...खैर , अभिनय ना करने कि पीड़ा अब भी सालती है...अन्दर का कलाकार छटपटाता है ....मन रोता है...वाकई 'पहला प्यार' जिन्दगी भर याद रहता है ...
------स्वयम्बरा
खबरगंगा: रंगकर्म : मेरा प्रथम प्रेम:
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5 comments:
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (13-10-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
प्रिय स्वयंबरा पहली बार आपका यह आलेख पढ़ा बहुत अच्छा संस्मरण लिखा है बहुत आभार शेयर करने हेतु
आभारी हूँ सर !
अभिनय से लगाव हो जाये तो हर जगह रंगमंच ही दिखाई देता है !
I came on your blog though Google search and i read 2-3 of your blog post and found many useful post out there...thanks for sharing...and keep the good works going..
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