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स्त्रियों का होना है जैसे खुशबू , हवा और धूप ....

बुधवार, 23 फ़रवरी 2011





स्त्रियाँ रचती हैं सिर्फ़ गीत
होती हैं भावुक
नही रखती कदम
यथार्थ के कठोर धरातल पर
ख्वाबों -सा ही होता है
उनका जहाँ
सच कहते हो
स्त्रियाँ ऐसी ही होती है

पर-

स्त्रियाँ ऐसी भी होती हैं

बस तुमने ही नहीं जाना है
उनका होना जैसे
खुशबू ,हवा और धूप

मन आँगन की महीन- सी झिरी से भी
छन कर छन से जाती हैं
सुवासित
करती हैं घर -आँगन
बुहार देती हैं कलेश , कपट , झूठ
सर्दी
की कुनकुनी धूप- सी
पाती हैं विशाल आँगन में विस्तार
आती
हैं लेकर प्रेमिल ऊष्मा का त्यौहार
रचती
हैं स्नेहिल स्वप्निल संसार
पहनाती
बाँहों का हारछेड़ती जैसे वीणा के तार

क्या नहीं जाना तुमने
स्त्रियों
का होना
माँ , बहन , बेटी , प्रेयसी


अनवरत श्रम से
मानसिक थकन से
लौटे पथिक को
झुलसते क्लांत तन को
विश्रांत मन को देती हैं
आँचल की शीतलता का उपहार

क्या कहा ...
नही जाना तुमने
होना उनका जैसे
खुशबू , हवा और धूप

जानते भी कैसे...
हथेली तुम्हारी तो बंद थी
पुरुषोचित दर्प से
तो फिर
मुट्ठी में कब कैद हुई है
खुशबू , हवा और धूप.....

12 comments:

Yashwant R. B. Mathur 23 फ़रवरी 2011 को 4:24 pm बजे  

बेहतरीन और दिल को छू लेने वाली कविता.

सादर

सदा 23 फ़रवरी 2011 को 4:31 pm बजे  

वाह ...बहुत ही सुन्‍दर भावमय करते शब्‍द ।

vandana gupta 23 फ़रवरी 2011 को 5:06 pm बजे  

आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (24-2-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।

http://charchamanch.blogspot.com/

Kailash Sharma 23 फ़रवरी 2011 को 8:07 pm बजे  

बहुत सुन्दर मर्मस्पर्शी रचना..

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना 23 फ़रवरी 2011 को 9:42 pm बजे  

बड़े ही विनम्र भाव से स्त्रीत्व को रेखांकित करती ........एक कोमल सी रचना .............बार-बार पढ़ने को जी चाहता है इसे ............जैसे सर्दी की किसी सुबह गुनगुनी धूप में ही बैठे रहने का जी करे ........वाणी जी ! स्त्री अपने इन्हीं विविध रूपों के कारण ही तो स्तुत्य है ........आपको सादर प्रणाम.

संगीता स्वरुप ( गीत ) 24 फ़रवरी 2011 को 9:32 am बजे  

वाणी ,
आईएस रचना को यहाँ फिर से पढ़ना एक सुखद अनुभव है ...यह रचना मुझे बेहद पसंद आई थी ...सुन्दर

मनोज पाण्डेय 24 फ़रवरी 2011 को 10:07 am बजे  

सुन्‍दर भावमयी ,स्त्रीत्व को रेखांकित रचना पसंद आई

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " 24 फ़रवरी 2011 को 4:42 pm बजे  

सत्य वचन ........बहुत सुन्दर प्रस्तुति

रवीन्द्र प्रभात 24 फ़रवरी 2011 को 6:48 pm बजे  

एक कोमल सी रचना ....दिल को छू लेने वाली !

अपर्णा 24 फ़रवरी 2011 को 10:55 pm बजे  

sundar rachna ... striyan sach aisi hi hoti hain

Hemant Kumar Dubey 22 अप्रैल 2011 को 12:51 am बजे  

हथेली तुम्हारी तो बंद थी
पुरुषोचित दर्प से
तो फिर
मुट्ठी में कब कैद हुई है
खुशबू , हवा और धूप.....


नारी के बारे में कितना सटीक लिखा है आपने | पुरुष तो तभी जान पाएंगे नारी को जब वे अपने विचारों को लचीला और मुक्त बनायेंगे |

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