हमारी धार्मिक आस्थाएं कितनी धार्मिक .........
रविवार, 9 अक्तूबर 2011
ये दृश्य कितने धार्मिक प्रतीत हो रहे हैं ?
दशहरा पूजा के साथ ही अनियंत्रित ध्वनिप्रदूषण का नौ दिन से चल रहा धार्मिक कार्यक्रम अगले वर्ष तक के लिए स्थगित हो गया.
.....और अब जल में विसर्जित की जा चुकीं न जाने कितनी दुर्गा प्रतिमाओं की पार्थिव देह में लेपित विषैले रासायनिक रंगों से भारत के असंख्य जलाशयों के जीवों के प्राण संकट में घिर जाने का उत्तर-धार्मिक कृत्य प्रारम्भ हो चुका है.
.........निराकार ...निर्गुण ब्रह्म को पढ़-पढ़ कर ज्ञानी हो गए धार्मिक कर्मकांडियों ने दुर्गा, सरस्वती, और गणेश की मूर्तियों के आकार बढाने शुरू कर दिए हैं.......विसर्जन के समय एक ट्रक का स्थान भी छोटा पड़ने लगा है. प्रतीकात्मक मूर्तियों के सार्थक सन्देश तो कभी के विसर्जित हो चुके हैं ......अब तो केवल मृत्तिकामूर्ति ही विसर्जित की जाती है.
.........निराकार ...निर्गुण ब्रह्म को पढ़-पढ़ कर ज्ञानी हो गए धार्मिक कर्मकांडियों ने दुर्गा, सरस्वती, और गणेश की मूर्तियों के आकार बढाने शुरू कर दिए हैं.......विसर्जन के समय एक ट्रक का स्थान भी छोटा पड़ने लगा है. प्रतीकात्मक मूर्तियों के सार्थक सन्देश तो कभी के विसर्जित हो चुके हैं ......अब तो केवल मृत्तिकामूर्ति ही विसर्जित की जाती है.
स्थानीय प्रशासनों ने तय कर दिया है कि किस मोहल्ले की मूर्तियाँ किस तालाब या नदी के जल को प्रदूषित करने का पुण्य कार्य करेंगी. यानी जल-प्रदूषण, ध्वनि-प्रदूषण, भूमि प्रदूषण और वायु-प्रदूषण में सहयोग करने के लिए धार्मिक कृत्य के नाम पर स्थानीय प्रशासन का भरपूर सहयोग मिल रहा है.
.....भरपूर सहयोग मिल रहा है उन्हें .....जिन्हें धर्म की लेश भी न तो जानकारी है... न उससे कोई प्रयोजन .......वाह-वाह ...वाह-वाह.....उच्चाधिकारियों की सोच ...उनका चिंतन ...कितना प्रखर और समाज के लिए कल्याणकारी है .....आनंद ही आनंद है.
पहले मैं सोचता था कि सामूहिक रूप से जो भी अकल्याणकारी कृत्य हैं उन्हें यदि समाज नहीं रोक सकता तो यह उत्तरदायित्व स्थानीय प्रशासन का होना चाहिए ....आखिर उनका उत्तरदायित्व है क्या ?
प्रदूषण जैसे अतिसंवेदनशील विषयों पर हम सकारात्मक और क्रियात्मक रूप से कब जागरूक हो सकेंगे ?
प्रदूषण जैसे अतिसंवेदनशील विषयों पर हम सकारात्मक और क्रियात्मक रूप से कब जागरूक हो सकेंगे ?
प्रशासनिक काम के नाम पर- "तुम गंगा में विष विसर्जित करते रहो ....हम बाद में पर्यावरण दिवस के दिन एक अच्छा सा भाषण दे देंगे ...स्कूलों में निबंध प्रतियोगिता करवा देंगे. ......हमारा उत्तरदायित्व समाप्त .......आखिर और क्या चाहते हैं आप हमसे ?"
चलिए, ये बातें तो होती रहेंगी. पहले आपको दुर्गा माता की विशाल मूर्ति के जल विसर्जन के कुछ दृश्य दिखा दूं .
दृश्य १- एक खुले ट्रक में निराकार आदिशक्ति माँ दुर्गा की विशाल मनोहारी मूर्ति रखकर भक्तगण राष्ट्रीय राजमार्ग से होकर जा रहे हैं. जनसामान्य के सहज-सामान्य यातायात को बाधित कर 'यातायात पुलिस' भक्तों के मार्ग की सारी बाधाओं ( ? ) को दूर करने में व्यस्त है. अन्य वाहनों को दूसरे मार्गों से घूम कर जाने के लिए विवश किया जा रहा है ....धार्मिक कार्य है ...सभी को श्रृद्धापूर्वक पालन करना आवश्यक है. भक्त एक जुलूस के रूप में गाते-बजाते-नृत्य करते चल रहे हैं .......(नहीं-नहीं केवल नृत्य करते चल रहे हैं ....गाने बजाने का काम यंत्रों द्वारा हो रहा है ....)
एक फर्लांग की दूरी तय करने में ४-५ घंटे लग रहे हैं..... स्वाभाविक है धार्मिक कार्य में शीघ्रता की क्या आवश्यकता? . "शीला की जवानी" से लेकर अंग्रेजी विलायती गाने तक ....कामदेव के प्रिय गीत-संगीत-नृत्य तक जितने भी कार्य हो सकते हैं सभी पूर्ण मनोयोग से संपादित करने का प्रयत्न हो रहा है.....लिंगभेद रहित किशोर-किशोरियाँ, युवक-युवतियाँ सभी कामुक नृत्य में रत हैं .....दूरदर्शन की नृत्य प्रतियोगिताएं राजपथ पर प्रकट हो रही हैं . भक्तों के मस्तिष्क में दुर्गामैया नेपथ्य में चली गयी हैं.....कामदेव की आराधना प्रारम्भ हो चुकी है ......कुछ लोग सुरापान के मद में अधिक आराधना कर रहे हैं ...उनके शरीर क्लांत होने का नाम नहीं ले रहे. वातावरण में मदिरा की गंध है, वायु में रंग-बिरंगे विषैले सूक्ष्म चूर्णों के बादल हैं जो मानव शरीर में अनूर्जता उत्पन्न करने के लिए पर्याप्त हैं . भक्तों के शरीर गुलाल से लेपित हैं ...वैयक्तिक पहचान समाप्त हो गयी है..... केवल उत्तेजक वस्त्रों के कारण लैंगिक पहचान संभव है ....अद्भुत दृश्य है ..... प्रतीत होता है, जैसे कि सभी ...एकरूप, एकाकार, अभेद ... होते जा रहे हैं. रीतिकाल राजपथ पर अवतरित हो चुका है ......
एक फर्लांग की दूरी तय करने में ४-५ घंटे लग रहे हैं..... स्वाभाविक है धार्मिक कार्य में शीघ्रता की क्या आवश्यकता? . "शीला की जवानी" से लेकर अंग्रेजी विलायती गाने तक ....कामदेव के प्रिय गीत-संगीत-नृत्य तक जितने भी कार्य हो सकते हैं सभी पूर्ण मनोयोग से संपादित करने का प्रयत्न हो रहा है.....लिंगभेद रहित किशोर-किशोरियाँ, युवक-युवतियाँ सभी कामुक नृत्य में रत हैं .....दूरदर्शन की नृत्य प्रतियोगिताएं राजपथ पर प्रकट हो रही हैं . भक्तों के मस्तिष्क में दुर्गामैया नेपथ्य में चली गयी हैं.....कामदेव की आराधना प्रारम्भ हो चुकी है ......कुछ लोग सुरापान के मद में अधिक आराधना कर रहे हैं ...उनके शरीर क्लांत होने का नाम नहीं ले रहे. वातावरण में मदिरा की गंध है, वायु में रंग-बिरंगे विषैले सूक्ष्म चूर्णों के बादल हैं जो मानव शरीर में अनूर्जता उत्पन्न करने के लिए पर्याप्त हैं . भक्तों के शरीर गुलाल से लेपित हैं ...वैयक्तिक पहचान समाप्त हो गयी है..... केवल उत्तेजक वस्त्रों के कारण लैंगिक पहचान संभव है ....अद्भुत दृश्य है ..... प्रतीत होता है, जैसे कि सभी ...एकरूप, एकाकार, अभेद ... होते जा रहे हैं. रीतिकाल राजपथ पर अवतरित हो चुका है ......
दृश्य 2- भक्त समूह पूरे राजपथ पर पूरे अधिकार के साथ नृत्यरत है. विषैले रंगीन सूक्ष्मचूर्ण ने स्वेदबिन्दुओं के साथ मिलकर शरीर के नश्वर चर्म पर अपना दाहक प्रभाव डालना प्रारम्भ कर दिया है. कुछ लोग दाह से मुक्ति के लिए नगरपालिका के नल से अनवरत बहने वाले जल की धारा का आश्रय ले रहे हैं.....कुछ स्वयंसेवक स्वेच्छा से उदारमना हो किशोरियों और युवतियों के शरीर पर जल डालने में सहयोग कर सहज पुण्य लाभ ले रहे हैं . जलदेवता ने नारी शरीर का स्पर्श करते ही कामदेव से अपनी पुरानी मित्रता निभानी शुरू कर दी है. भक्त समुदाय और भी द्विगुणित-त्रिगुणित-चतुर्गुणित-पंचगुणित ......गति और अनंत उल्लास के साथ नृत्य में रत हो गया है. भक्ति का आनंद लेने आये छद्म चिकित्सक समुदाय के लोग यह देख-देख कर हर्षित हैं .....उनकी अनैतिक आर्थिक आय में अगले तीन-चार महीनों में वृद्धि की पृष्ठभूमि निर्मित हो रही है. उन्होंने दुर्गामैया की प्रतिमा के सम्मुख श्रद्धावनत हो ....मन ही मन मुदित होते हुए गले की पूरी शक्ति से जयकारा लगाया -"बोलो दुरगा मइयाँ की जय"
दृश्य ३- भीड़भरा दशहरा मैदान ......रावण-वध का दिन ...लोग प्रतीक्षा कर रहे हैं ....रावण के मारे जाने की ...और फिर पृथ्वी से आकाश तक गमन करती अग्नि-क्रीडा की ...बालवृन्द का प्रिय आनंददायी खेल.
बड़ों को सम्मान देने की परम्परा में कहीं पीछे न रह जायँ इसलिए राम के स्थान पर सम्माननीय भ्रष्टअधिकारी जी शरसंधान का उद्घाटन कर रहे हैं ...बाद में राम का अभिनय करने वाला गरीब आदमी रावण को मारने की रस्म अदायगी कर देगा. उद्घाटन संस्कृति का बोलबाला यहाँ भी है.
दिल्ली में एक विदेशी इसाई महिला शरसंधान कर दशहरा का उद्घाटन कर रही है. बिना उद्घाटन किये हम किसी भी महत्वपूर्ण कार्य का प्रारम्भ ही नहीं करते . उद्घाटन इतना महत्त्वपूर्णकार्य है कि उद्घाटन प्रमुख हो जाता है और महत्वपूर्ण कार्य गौण.
हमारी प्रतीकात्मक परम्पराएं भी राजनैतिक प्रभाव से ग्रस्त हो गयी हैं. कहीं-कहीं तो कुछ राजनेताओं और अधिकारियों द्वारा रावणवध के अभिनय से पूर्व राम और लक्षमण को तिलक लगाकर आशीर्वाद दिया जा रहा है ....कि जाओ रावणवध में सफल हो....अपना काम करो .....हमारे कामों पर ध्यान मत दो ....तुम्हारा काम यह अभिनय करना ही है ...इससे अधिक और कुछ नहीं .....बस....
आने वाले समय में धार्मिक सद्भावना के बहाने जामामस्जिद के किसी बड़े आदमी को बुलाया जाया करेगा.....सम्मानपूर्वक आमंत्रणपत्र भेजा जाएगा - ".......रावणवध के पुनीत कार्य में शरसंधान के उद्घाटन हेतु आपको आमंत्रित किया गया है .....आपकी उपस्थिति से हम गौरवान्वित होंगे .....पूरे देश पर कृपा होगी......हिन्दू धर्म का उद्धार हो जाएगा ...जो कि अभी तक रुका हुआ था ......पूरा देश आपकी प्रतीक्षा कर रहा है. ......."
हमारी गौरवशाली परम्पराएँ अब सन्देश देने में सक्षम नहीं रह गयीं हैं. राम गौण हैं, राम के अभिनय का उद्घाटन प्रमुख है.
ये कौन लोग हैं जो हिन्दू धर्म को इस तरह विकृत करने में लगे हुए हैं ? समाज के ये कौन लोग हैं जो देवी-देवताओं की प्रतिमाओं के आगे मद्यसेवन कर फूहड़ कामुक नृत्य करते हैं ? ये कौन लोग हैं जिनके घरों की किशोरियाँ और युवतियाँ गणेश पूजा, सरस्वती पूजा और दूर्गा पूजा में मूर्तियों के विसर्जन के समय कामुक नृत्य करती हैं ?....और नारी को शक्ति का रूप मानकर सदियों से पूजने वाला यह कौन सा भारतीय समाज है जो उस फूहड़ नृत्य का मूक दर्शक बना रहता है ? ये कौन लोग हैं जिन्होंने रावणवध के लिए भी उद्घाटन की अनावश्यक परम्परा को जन्म दिया है ? ये कौन लोग हैं जिन्होंने अभिनय में ही सही पर राम के अधिकार पर झपट्टा मार दिया है ?
ये कैसी प्रशासनिक व्यवस्था है जो विकृत कर्मकांड के मूल्य पर प्रदूषण को बढ़ावा दे रही है ? हिंदूधर्म के वे विवेकशील लोग कहाँ हैं जो इन कुपरम्पराओं का विरोध करने आगे नहीं आ रहे हैं ? इस अंधभक्त भीड़ को किसने अधिकार दे दिया कि वे एलर्जी करने वाले रंगों का धार्मिक उत्सवों में दुरुपयोग करें ? मूर्ति विसर्जन में रंगों का क्या काम ? हर जुलूस में रंग की होली खेलने की नयी कुपरम्परा कौन डाल रहा है ? .......हड़ताल में मांगें मान ली गयीं या केवल आश्वासन ही मिल गया तो भी रंगों की होली .......
कमाल है, केवल शोर करते वाद्य यंत्रों की धुन पर फूहड़ नृत्य और विषैले रंगों की होली हमारी हर प्रकार की प्रसन्नता की अभिव्यक्ति के द्योतक बन गए हैं. पूरे वर्ष रंगोंकी होली खेलने के इस व्यापार को कौन बढ़ावा दे रहा है ? जिस देश में निर्धनता के कारण लोग भूखे पेट सोने को बाध्य हों वहाँ इस प्रकार की मूर्ति पूजा के अपव्यय में कैसी धार्मिकता नज़र आती है लोगों को ?
क्या भारत के प्रबुद्ध लोग इस धार्मिक विकृति और बढ़ती निरंकुशता के विरोध में सामने आने का साहस करेंगे ?
4 comments:
its very ugly face of our society... your post must be considerable to all. Great post
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर भी की गई है!
अधिक से अधिक लोग आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।
सच्चाई को दर्शाता एक विचारणीय आलेख्।
Aapne sach likha hai ki dharmik karyon ke nam par paryawaran ko pradhushit karne ki anumati nahi dee jani chahiye.
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