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ग़ज़लगंगा.dg: देवता जितने भी थे पत्थर के थे

गुरुवार, 12 जुलाई 2012

कुछ ज़मीं के और कुछ अंबर के थे.
अक्स  सारे  डूबते  मंज़र  के  थे.

कुछ इबादत का सिला मिलता न था
देवता जितने भी थे पत्थर के थे.

दिल में कुछ, होठों पे कुछ, चेहरे पे कुछ
किस कदर मक्कार हम अंदर के थे.

खुल के कुछ कहने की गुंजाइश न थी
हम निशाने पर किसी खंज़र के थे.

मेरी बातें गौर से सुनते थे सब
हम उड़ाते जब तलक बेपर के थे.

आस्मां को नापना मुश्किल न था
फ़िक्र में हमलोग बालो-पर के थे.

उलझनों में इस कदर जकड़े थे हम
हम न दफ्तर के न अपने घर के थे.

तोड़ डाली वक़्त ने सारी अकड़
तेज़ वर्ना हम भी कुछ तेवर के थे.

-----देवेंद्र गौतम


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