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रेत का ढांचा समझ न लेना इक पल में न बिखर पाऊंगा

मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

चाहो तो धीरज से सुन लो, मुख-भावों को या पहचानो
अपनी बात बता देता हूं, मानो या कि तुम न मानो...!!
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जितनी बार मुझे मसलोगे उतना   और निखर आऊंगा
रेत का ढांचा समझ न लेना इक पल में न बिखर पाऊंगा
इस उस की दीवारें रंगते, अखबारों में खबर छपाते
तुम काजल की कोख के जाये, मुख-मुख पे काजल पुतवाते
कलम के कारण राम राम हैं, कलम ने लिक्खा रावण मानों

चाहो तो धीरज से सुन लो, मुख-भावों को या पहचानो
अपनी बात बता देता हूं, मानो या कि तुम न मानो...!!

( शेष फ़िर )
  

  

2 comments:

seema gupta 5 अप्रैल 2011 को 9:55 am बजे  

चाहो तो धीरज से सुन लो, मुख-भावों को या पहचानो
अपनी बात बता देता हूं, मानो या कि तुम न मानो
"apni baat khne ka sahi andaaz"
regards

ब्रजेश सिन्हा 9 अप्रैल 2011 को 4:01 pm बजे  

जो जिस काबिल है उसे सम्मान और अपमान प्राप्त होता है, अच्छा लिखा है आपने !

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