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आंख आ गई जबकि उम्र दिल आने की थी

मंगलवार, 24 जनवरी 2012



जी हज़ूर , इन  आंखें  आने दिनों के  दौर में दुनियां कित्ती परेशान है आपको क्या मालूम आप को यह भी न मालूम होगा कि आज़ आपका यह ब्लागर भरी हुई आंख से पोस्ट लिख रहा है. खैर मुहल्ले के नये नये जवान हुए लड़के-लड़कियों पर ये मौसम भारी पड़ता है. आंख आ गई जबकि उम्र दिल आने की है. वैसे दिल आने के लिये उम्र की कोई बाधा क़तई नहीं होती बस इत्ता खयाल रखना चाहिये कि  कोई क़यामत शयामत न आ जाए. वर्ना बुढ़ापे में इश्क़ ....आशिक़ का  ज़नाज़ा .. आसान समीकरण होते हैं. बहरहाल दास्तान-ए-लैला मज़नूं के मज़नूं की मानिंद एक किरदार पूरे होशो-हवास में अपनी माशूक़ के दरवाज़े खड़ा खड़ा पन्नों पे लिख लिख के बारास्ता खिड़की खत भेज रिया था कि झरोखे से एक खत ठीक वैसे ही मियां मज़नूं के आगे गिरा. ज़नाब चिहुंके खत उठाया बांच ही रहे थे कि तड़ाक से एक वार तशरीफ़ पर पड़ा इकन्नी छाप मजनूं मुंह के बल औंधे जा गिरे. खत में माशूका ने लिखा था :-”बन्टी भाग आज़ पापा का हाफ़ डे है.” दर असल बन्टी मियां को आई फ़्लू था किंतु आई लव यू कहना भी उतना ही ज़रूरी था बंटी उर्फ़ इकन्नी छाप मजनूं को भाई वो इश्क ,इश्क क्या जो बैठे बिठाए जन्नत न दिखाए. ...
इधर एक दफ़्तर में साब को अपने सारे मातहत कामचोर नज़र आते थे . साहब के  कर्मचारी मंटू भाई बड़े शातिर थे सोचा स्साले साहब की वाट लगाने का उम्दा मौका है सो पहुंच गये बिना आंख आए काला चश्मा लगाए. साहब के कमरे में बोले:-सर, ये फ़ाईल में ज़रा........?
साहब बहादुर ने ज्यों चश्माधारी को देखा बोले अरे कमरे में चश्मा... तमीज़ भूल गये हो क्या हीरो गर्दी सवार है सर पे...?
”न सर जी आखें आईं हैं मेरी ”
साहब फ़ौरन बोले भाइ ज़ल्द कमरे से जाओ, रुको मत तुम्हारी छुट्टी बिदाउट एप्लिकेशन जाओ..
मंटू:-सर, फ़िर ये काम कौन करेगा...?
अरे काम वाम को मारो गोली भागो इधर से...
      मियां मंटू भाग लिये. पांच दिन आराम से ससुराल की यात्रा भी कर आये सालियों से नैन मटक्के के दौरान एक साली का आई फ़्लू जीजू की आंख में शिफ़्ट हो गया. अब घर वापसी हुई दूसरे दिन वही हाल दफ़्तर जाना ज़रूरी था सो गये. वही काला चश्मा फ़र्क ये था कि अब वाक़ई आंख आ चुकी थी . साहब को इस बार लगा कि शायद मंटू झूठ बोल रहा है सो कमरे में बुलाया :- अरे, क्या दस दिन लगेंगे चश्मा उतारो काम करो बहाना मत करो ?
बस, भरी पूरी आंख खोल दी साहब बहादुर के सामने और लगा घूरने .. साहब की हालत पतली दाल से भी पतली हो गई. झट जाने क्या हुआ.....  मंटू को छुट्टी देते हुए घिघियाने लगे बोले भाई मुझे माफ़ करना मैने तुम पर एतबार नहीं किया.
दूसरे दिन बड़े बाबू से फ़ोन पर पूछा कि साहब के क्या हाल है..?
बड़ा बाबू:- तीन दिन की छुट्टी की दर्ख्वास्त आ गई है खुश हो न ...?

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तबादलों की पावन-सरिता

सोमवार, 13 जून 2011




 प्रशासनिक व्यवस्था में तबादलों की पावन-सरिता बहती है जो नीति से कभी कभार ही बहा करती है बल्कि ”रीति”से अक्सर बहा करती है.  तबादलों की बहती इस नदिया में कौन कितने हाथ धोता है ये तो  भगवान, तबादलाकांक्षी, और तबादलाकर्ता ही जानता है. यदाकदा जानता है तो वो जो  तबादलाकांक्षी, और तबादलाकर्ता के बीच का सूत्र हो. इस देश में तबादला कर्ता एक समस्या ग्रस्त सरकारी प्राणी होता है. उसकी मुख्य समस्या होती हैं ..बच्चे छोटे हैं, बाप बीमार है, मां की तबीयत ठीक नहीं रहती, यानी वो सब जो घोषित तबादला नीति की राहत वाली सूची में वार्षिक रूप से घोषित होता है. अगर ये सब बे नतीज़ा हो तो तो अपने वक़ील साहबान हैं न जो स्टे नामक संयंत्र से उसे लम्बी राहत का हरा भरा बगीचा दिखा लाते हैं.  तबादले पहले भी होते थे अब भी होते हैं  क्योंकि यह तो एक सरकारी प्रक्रिया है. होना भी चाहिये अब घर में ही लीजिये कभी हम ड्राईंग रूम में सो जाते हैं कभी बेड-रूम में खाना खाते हैं. यानी परिवर्तन हमेशा ज़रूरी तत्व है. गिरी  जी का तबादला हुआ, उनके जगह पधारीं देवी जी ने आफ़िस में ताला जड़ दिया ताक़ि गिरी जी उनकी कुर्सी पर न बैठे रह जाएं. देवी जी सिखाई पुत्री थीं सो वही किया जो गिरी के दुश्मन सिखा रए थे. अब इस बार हुआ ये कि उनका तबादला हुआ तो वे गायब और इस डर से उनने कुर्सी-टेबल हटवा दिये कि कार्यालयीन टाईंम पर कहीं रिलीवर नामक दस्यु आ धमका और उनकी कुर्सी पर टोटका कर दिया तो ?
         इस तो भय से मोहतर्मा नें कुर्सी-टेबल हटवा दिये. बहुत अच्छा हुआ वरना दो तलवारें एक म्यान में..? 
तबादलों का एक और  पक्ष होता है जिसका तबादला कर दिया जाता है उसे लगता है जैसे वो बेचारा या बेचारी अंधेरी गली से हनुमान चालीसा बांचता   या ताबीज़ के सहारे  
निकल रहा/रही था  और कोई उसे लप्पड़  मार के निकल गया. अकबकाया सा ऐसा सरकारी जीव फौरी राहत की व्यवस्था में लग जाता है. 
                           तबादलों को निश्तेज़ करने वाले संयंत्र का निर्माण भारत की अदालतों में क़ानून नामक रसायन से वक़ील नामक वैज्ञानिक किया करते हैं. इस संयंत्र को स्टे कहा जाता है. जिस पर सारे सरकारी जीवों की गहन आस्था है. वकील नामक  वैज्ञानिक कोर्ट कचैरी के रुख से भली प्रकार वाकिफ  होते हैं. 
      इन सब में केवल सामर्थ्य हीन ही मारा जाता है. समर्थ तो कदापि नहीं. इसके आगे मैं कुछ भी न लिखूंगा वरना ....    
          भरे पेट वाले मेरे जैसे सरकारी जंतु क्या जानें कि देश की ग़रीब जनता खुद अपना तबादला कर लेती है दो जून की रोटी के जुगाड़ में.बिच्छू की तरह पीठ पे डेरा लेकर निकल पड़ता है. यू पी बिहार का मजूरा निकल पड़ता है आजीविका के लिये महानगरीयों में. उधर वीर सिपाही   बर्फ़ के ग्लेशियर पर सीमित साधनों के साथ तबादला आदेश का पालन करता  देश के हम जैसे सुविधा भोगियों को बेफ़िक्री की नींद सुलाता है रात-दिन जाग जाग के.भूखा भी रहता ही होगा कभी कभार कौन जाने.   
नोट:- इस आलेख में प्रयुक्त तस्वीरें गूगल के साभार प्राप्त की गईं हैं जिस किसी को आपत्ती हो मुझे सूचित कर सकता है ताकि चित्र हटा सकूं   

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