ब्लॉगजगत की ताज़ा हलचलें
मित्रों,मैं मनोज पाण्डेय आज लेकर आया हूँ आप सभी के लिए ब्लॉगजगत की ताज़ा हलचलों में से उन प्रसंगों को, जिसने ब्लॉगजगत को एकबारगी आंदोलित कर दिया है !
एक लंबी चुप्पी के बाद कल रवीन्द्र प्रभात जी का वक्तव्य आया परिकल्पना पर सामूहिक ब्लॉग को लेकर !
आईये सबसे पहले उन्हीं से पूछते हैं :
इसमें कोई संदेह नहीं कि आज ब्लॉग पर बाज़ार की नज़र है, भारत के लगभग ४५ करोड़ युवाओं की आवाज़ को संगठित करते हुए यदि ब्लॉगजगत से जोड़ने हेतु जबरदस्त मुहीम चलाई जाए तो निश्चित रूप से हम हिंदी ब्लोगिंग के माध्यम से एक नयी क्रान्ति की प्रस्तावना कर सकते हैं और इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है सामूहिक ब्लॉग !सामूहिक ब्लॉग के माध्यम से हम उनकी आवाज़ को समाज की प्रतिनिधि आवाज़ के तौर पर प्रस्तुत कर सकते हैं,बसर्ते कि सामूहिक ब्लॉग के मॉडरेटर अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा का परित्याग करे ! () रवीन्द्र प्रभात, हिंदी के प्रमुख ब्लॉग विश्लेषक एवं वरिष्ठ साहित्यकार
जी के अवधिया जी, जिन्हें हिंदी के प्रमुख ब्लॉग विचारक के रूप में मान्यता मिली हुयी है, आईये इस विषय पर जानते हैं उनकी राय, कि वे रवीन्द्र प्रभात जी की बातों से कितना इत्तेफाक रखते हैं ?

यह व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा ही तो हिन्दी ब्लोग और आम पाठक के बीच सबसे बड़ा रोड़ा है, किन्तु दुःख की बात यह है कि इस महत्वाकांक्षा का त्याग करना किसी भी ब्लोगर, चाहे वह निजी ब्लोग का स्वामी हो या फिर सामूहिक ब्लोग का मॉडरेटर, के लिए बहुत ही कठिन साबित हो रहा है।ब्लोगर्स आम पाठकों की रुचि का ध्यान रख कर पोस्ट लिखते ही नहीं हैं क्योंकि आम पाठक साधारणतः टिप्पणी नहीं करता। हमारे ब्लोगर्स तो अन्य ब्लोगर्स को ही ध्यान में रखकर लिखते हैं क्योंकि उनसे उन्हें टिप्पणियाँ मिलती हैं।
चलिए इस विषय पर अब देश के प्रमुख विधि विशेषज्ञ ,वरिष्ठ ब्लॉगर तथा हमारी वाणी के मुख्य संपादक दिनेश राय द्विवेदी जी के विचारों से रूबरू होते हैं :

सामुहिक ब्लागों का होना अच्छी बात है, लेकिन मेरा एक सुझाव है कि हर सामुहिक ब्लाग की एक प्रकाशन नीति होनी चाहिए। इस प्रकाशन नीति पर बीच-बीच में ब्लाग सदस्य विचार कर सकते हैं। इस के साथ ही ब्लाग पर पोस्ट को प्रकाशित करने की जिम्मेदारी किसी एक व्यक्ति की होनी चाहिए जिसे ब्लाग संपादक कहा जा सकता है। यह इस लिए आवश्यक है कि वह इस बात का ध्यान रखे कि ब्लाग पर जो भी पोस्ट जाए वह उस की निगाह से हो कर गुजरे और इस बात का ध्यान रखा जाए कि वह उस ब्लाग की नीति के अनुरूप हो।यदि ऐसा होता है तो सामुहिक ब्लाग कीर्तिमान स्थापित कर सकते हैं साथ ही एक नई दिशा समाज को भी प्रदान कर सकते हैं।
इसी विषय पर डा मोनिका शर्मा पूरी तरह रवीन्द्र जी की बातों से सहमति जता रही हैं :सही बात है.... सार्थक मार्गदशन के साथ युवाओं को ब्लॉग्गिंग से जोड़ा जाये तो परिणाम बहुत सुखद हो सकते हैं.....
अब आईये देश के प्रमुख कार्टूनिष्ट काजल कुमार जी का क्या कहना है इस सन्दर्भ में ?

अभी बहुत से लोगों को पता ही नहीं है कि इंटरनेट पर अब आप भारतीय भाषाओं को प्रयोग बिना कुछ अतिरिक्त ख़र्च किए कर सकते है......हमारे एक वरिष्ठ हिन्दी—लेखक मित्र हैं, एक बार उनको मैंने अनजाने में ही नववर्ष की शुभकामनाएं इ—मेल से हिन्दी में लिख भेजीं.उनका जवाब आया कि भई हमें भी तो बताओ कि आपने इ—मेल में यह हिन्दी कैसी लिखी. वर्ना हम तो यूं ही रोमन शब्दों में हिन्दी इ—मेल लिखते हैं.तब से मैंने नियम बना लिया कि भले ही किसी को भी इ—मेल अंग्रेज़ी में ही क्यों न लिखूं, एक आध शब्द या वाक्य हिन्दी में ज़रूर घुसेड़ देता हूं.(पर राष्ट्रभाषा हिन्दी की झंडाबरदारी को लेकर कोई नारेबाज़ी नहीं) इसी का प्रताप है कि अधिकांश जानकार लौटती डाक से जानना चाहते हैं इंटरनेट पर हिन्दी के बारे में.
रवीन्द्र जी के विचार तो सार्थक है, किन्तु बहुसंख्यक युवा वर्ग को उन सामूहिक ब्लाग पर लिखने के लिये प्रेरित करने का मार्ग भी तो तलाशना होगा ।
आज की ताज़ा खबर :
चलिए अब चलते हैं एक और समूह ब्लॉग नुक्कड़ की ओर,अभी-अभी जानकारी हुई है कि नुक्कड़ पर सुशील कुमार ने एक ऐसी पोस्ट प्रकाशित कर दी है,जिससे ब्लॉगजगत अचानक ही आंदोलित हो गया है ! खासकर उस पोस्ट से नुक्कड़ ब्लॉग के संचालक अविनाश वाचस्पति ज्यादा उत्तेजित हैं,हालांकि उनकी उत्तेजना जायज है ये मैं नहीं कह रहा हूँ पूरा ब्लॉगजगत कह रहा है, आईये आप भी देखिये :

नेट पर साहित्य को अभी मानक मिलने में काफ़ी समय लगने की संभावना है क्योंकि साहित्य के पुरोधाओं ने इसे अब तक द्वितीय पंक्ति की चीज मान रखा है और जरुरत के मुताबिक इसका इस्तेमाल किया गया है। यहां केवल वे लोग अक्सर देखे जाते हैं जिनको सरप्लस समय है। सरप्लस पूंजी का उपयोग कर वे संभ्रांत जन में अपना प्रभाव जमाने के लिये इसका उपयोग-उपभोग करते हैं। इसलिये जो नेट पर समर्पित होकर काम कर रहे हैं, उन्हें यहां निराशा भी हाथ लगती है। यहाँ चीजे first hand नहीं आतीं। पूर्णिमा वर्मन हो या सुमन कुमार घई जी , इनको साहित्य की अद्यावधि गतिविधियों की जानकारियाँ नहीं रहती। इनकी दुनिया नेट पर संकुचित हो गयी है। हालाकि नेट पर इनके काम काफ़ी सराहनीय है पर यह इस जगह की ही विडम्बना है। अविनाश वाचस्पति जी को ही ले लीजिये, नेट पर समय देने को तैयार हैं अपनी स्वास्थ्य खराब करके भी , पर यह मुगालता पाल रखा है सर जी ने कि हिन्दी पर बहुत अच्छा काम नेट में हो रहा है।जितने भी अप्रवासी वेबसाईट हैं सब मात्र हिन्दी के नाम पर अब तक प्रिंट में किये गये काम को ही ढोते रहे हैं, वे स्वयं कोई नया और पहचान पैदा करने वाला काम नहीं कर रहे , न कर सकते क्योंकि वह उनके कूबत से बाहर है। () सुशील कुमार, नुक्कड़ के सहयोगी
इस पोस्ट की व्यापक प्रतिक्रया हो रही है
इस विषय पर लोकप्रिय ब्लॉग उड़न तश्तरी के ब्लोगर समीर लाल समीर का कहना है कि :यह चर्चा का विषय है, इससे पूर्णतः सहमत नहीं हुआ जा सकता, जबकि
उच्चारण ब्लॉग के स्वामी और चर्चा मंच के मॉडरेटर
डा. रूप चन्द्र शास्त्री मयंक का मानना है कि : अब साहित्यकारों को अपना दृष्टिकोण बदलना होगा,क्योंकि ब्लॉगिंग अब बहुत लोकप्रिय होती जा रही है!
इस विषय पर रवीन्द्र प्रभात का कहना है कि :हर समाज की अपनी भाषा और संस्कृति होती है और हर भाषा का अपना साहित्य होता है। हिन्दी भाषा का भी अपना साहित्य और समाज है। कहना न होगा यह समाज और इसका साहित्य अत्यंत समृद्ध रहा है। आधुनिक समय में मीडिया, विज्ञापन, पत्रकारिता और सिनेमा ने हिंदी भाषा, साहित्य और संस्कृति की भूमि को उर्वर बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। ब्लाग या चिट्ठा इसी विकास की दुनिया का नवीनतम माध्यम है और ब्लागिंग या चिट्ठाकारिता लेखन या मीडिया की नई विधा।
अंतरजाल की गहराईयों में गहरे उतरकर तो देखिये, अनगिनत साहित्य रुपी मोती आपको प्राप्त हो जायेंगे,किताब या पत्रिका की तुलना में इसकी पहुँच अधिक और तेज होने के कारण यह कई मामलों में पुराने मीडिया माध्यमों से बेहतर है।

इस विषय पर काजल कुमार मानते हैं कि "पश्चिम में आज, प्रिंट का स्थान बड़ी तेज़ी से e-books ले रही हैं. हमारे यहां भी सभी लेखक, अपने लेखन में कंप्यूटर का प्रयोग करते हैं. तो फिर वे ये उम्मीद कैसे पाले बैठे हैं कि वे लिखेंगे तो कंप्यूटर पर उनका लिखा लोग पढ़ेंगे केवल छपा हुआ. यह कबूतर का, बिल्ली आते देख आंखें मूंद लेने जैसा नहीं है !आज जो पाठक छपी किताब ख़रीद कर पढ़ता है, उसकी जेब में मोबाइल भी होता है. लेकिन उसे अपने मोबाइल की संभावनाएं अभी पता नहीं हैं, बस. आज जो मोबाइल आ रहे हैं वे इंटरनेट व भारतीय-भाषा-सक्षम मोबाइल हैं. मोबाइल की ही क़ीमत में, किताबें पढ़ने के लिए टैबलेट आने लगी हैं जो किताब के साइज़ की ही हैं. बस चार दिन की बात है...जैसे आज हर कोई मोबाइल लिए घूमता है कल इसका प्रयोग पढ़ने के लिए भी करता भी मिलेगा. आने वाले इस कल की, एक बानगी तो आज हवाई यात्राओं में भी देखी जा सकती है.बेचारे तथाकथित किताबी लेखक माने बैठे हैं कि कंप्यूटर पर अच्छा माल नहीं डाला जाता और, ये भी कि इंटरनेट पर सब फ़्री ही होता है. शायद वे मानने को तैयार नहीं कि किताबों के नाम पर भी खूब कूड़ा छपता है दूसरे, अभी इन्हें पता नहीं कि इंटरनेट पर सबकुछ फ्री नहीं है. यहां भी, ढंग का माल डाउनलोड करने में माल ख़र्च होता है. इनकी छपी जयादातर किताबें आज भी लाइब्रेरियों में धकियायी जाती हैं. कल जब वह गली भी बहुत संकरी होने लगेगी तब ये संभ्रांतवाद की ग़तलफ़हमी में जीने वाली जनता सच में ही कंप्यूटर की ओर दौड़ी फिरेगी...!"
जबकि वरिष्ठ ब्लोगर और व्यंग्यकार अविनाश वाचस्पति जी के तेवर कुछ ज्यादा आक्रामक है, आप भी देखिये :

पहली पंक्ति साफ जाहिर कर रही है कि नेट पर साहित्य को मानक मिलेगा। फिर मात्र सात दस वर्ष के शिशु से आप यह अपेक्षा क्यों कर रहे हैं कि वो सिर्फ इतनी अल्पावधि में शिखर पर सवार हो जाए। जिन्हें आप साहित्य का पुरोधा कह रहे हैं वे असलियत में पुरोधा तो हैं ही नहीं, पुरोधा तो कई सौ वर्ष पहले बीत गए हैं। अब जो हैं, वे सिर्फ क्रोधा हैं, मन में झांक लेंगे, तो सही आंक लेंगे। इसे द्वितीय पंक्ति की चीज मानना, दूसरे नंबर पर स्वीकार करना है। मतलब जरा सी चूक से वे अपनी पहली पंक्ति गंवा बैठेंगे। यही भय काफी है, पहली पंक्ति वालों के लिए और वो भी दूसरी पंक्ति वालों से, क्योंकि पहली पंक्ति वाले सिर्फ इस्तेमाल करना जानते हैं, इससे अधिक कुछ नहीं। सरप्लस समय वाले नहीं, धुन के धनी मौजूद हैं यहां पर, धन के धनी क्या गुल खिला रहे हैं, यह प्रिय भाई सुशील भली भांति जानते हैं। संभ्रांत जन पर प्रभाव जमाने वाली बात सिरे से ही भ्रांति से लबालब है क्योंकि ऐसा नहीं हो रहा है कि लोग हजारों लाखों करोड़ों व्यय करके, महंगे आलीशान सभागारों में मंत्रियों, साहित्य के पुरोधाओं को बुलाकर उनकी चापलूसी करने में निमग्न हैं और न ही स्वयं के खर्च से पुस्तकों, संग्रहों का प्रकाशन करके, उनकी समीक्षाएं लिखवाकर, लोकार्पण करवाकर, आत्म मुग्धता में रमे हुए हैं।
और अब ताज़ा पोस्ट झलकियाँ
आज बस इतना ही, इजाजत दीजिये....फुर्सत मिली तो अगले हप्ते फिर मुलाक़ात होगी ......आपका मनोज पाण्डेय