ग़ज़लगंगा.dg: अब नहीं सूरते-हालात बदलने वाली.
शुक्रवार, 11 नवंबर 2011
अब नहीं सूरते-हालात बदलने वाली.
फिर घनी हो गयी जो रात थी ढलने वाली.
अपने अहसास को शोलों से बचाते क्यों हो
कागज़ी वक़्त की हर चीज है जलने वाली .
एक सांचे में सभी लोग हैं ढलने वाले
जिंदगी मोम की सूरत है पिघलने वाली.
फिर सिमट जाऊंगा ज़ुल्मत के घने कुहरे में
देख लूं, धूप किधर से है निकलने वाली.
एक जुगनू है शब-ए-गम के सियहखाने में
एक उम्मीद है आंखों में मचलने वाली.
2 comments:
sundar gajal
बहुत उम्दा बेहतरीन पोस्ट बधाई ...
नए पोस्ट में स्वागत है ...
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