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रविवार, 20 नवंबर 2011
अपनी-अपनी जिद पे अड़े थे.
इसीलिए हम-मिल न सके थे.
एक अजायब घर था, जिसमें
कुछ अंधे थे, कुछ बहरे थे.
फिसलन कितनी थी मत पूछो
हम गिर-गिरकर संभल रहे थे.
खुद से पहली बार मिला था
जिस दिन तुम मुझसे बिछड़े थे.
बच्चों की सोहबत में रहकर
हम भी बच्चे बने हुए थे.
इसीलिए खामोश रहे हम
उनकी भाषा समझ गए थे.
आखिर कबतक खैर मनाते
हम कुर्बानी के बकरे थे.
----देवेंद्र गौतम
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2 comments:
वाह
sundar shbad
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